हंसराज 'वायरलेस': जिनके बम ने लगभग उड़ा ही दी थी लॉर्ड इर्विन की ट्रेन
23 दिसंबर 1929 की सुबह घना कोहरा छाया हुआ था, जब दिल्ली से छह मील पहले उस स्पेशल ट्रेन पर बम हमला हुआ जिसमें ब्रिटिश इंडिया के वायसराय लॉर्ड इर्विन और उनकी पत्नी सवार थे.
हंसराज 'वायरलेस': जिनके बम ने लगभग उड़ा ही दी थी लॉर्ड इर्विन की ट्रेन

इमेज स्रोत, Getty Images
-
- Author, वक़ार मुस्तफ़ा
- पदनाम, पत्रकार और शोधकर्ता
- 4 घंटे पहले
23 दिसंबर 1929 की सुबह घना कोहरा छाया हुआ था, जब दिल्ली से छह मील पहले उस स्पेशल ट्रेन पर बम हमला हुआ जिसमें ब्रिटिश इंडिया के वायसराय लॉर्ड इर्विन और उनकी पत्नी सवार थे.
अगले दिन अख़बार 'द स्टेट्समैन' ने लिखा कि दक्षिण भारत से आ रहे इर्विन का अपना सलून (ख़ास बोगी) बाल-बाल बचा था. उन्होंने ख़ुद तो इस धमाके को रेलवे में धुंध के कारण दी जाने वाली चेतावनी 'फ़ॉग सिग्नल' समझा और आम लोगों ने इसे स्वागत में दागी गई तोप के गोले की आवाज़. यही धुंध, जिसे अमेरिकी अखबार 'द न्यूयॉर्क टाइम्स' ने 'ईश्वरीय व्यवस्था' बताया, इर्विन जोड़े के बचाव का ज़रिया बनी.
'द स्टेट्समैन' ने लिखा कि पायलट इंजन हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन से सुरक्षित गुज़र गया था.
"13 डिब्बों की स्पेशल ट्रेन में तीसरा डिब्बा डाइनिंग कार था, यह और चौथा डिब्बा धमाके में बुरी तरह प्रभावित हुए. इर्विन का सलून इससे दो डिब्बे पीछे था. धुंध की वजह से हमलावर उस सलून को पहचान नहीं सके जिसमें बैठे वायसराय और लेडी इर्विन नए बने वायसरीगल लॉज की बातें कर रहे थे, जहां उन्हें पहला निवासी बनना था."
बीबीसी हिन्दी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
'टाइम्स' ने लिखा कि कोहरे की वजह से वायसराय की ट्रेन की रफ़्तार बहुत ही कम हो गई थी और ट्रेन 30 फ़ुट ऊंची साइड वॉल से नीचे गिरकर बर्बाद होने से बाल-बाल बच गई. "एक के बाद एक डिब्बे पटरी में मौजूद दो फ़ीट के गैप को पार करते हुए निकल गए, जबकि उनके नीचे लकड़ी के स्लीपर माचिस की तीलियों की तरह बिखर चुके थे."
'द स्टेट्समैन' ने लिखा कि इसी धुंध की वजह से उन लोगों का पता नहीं चल पाया जिन्होंने बेहद महारत और सावधानी से ट्रैक में बम रखकर उसे एक अंडरग्राउंड तार के ज़रिए 200 गज़ दूर बैटरी से जोड़ा था. 'टाइम्स' के मुताबिक़ पुलिस को लगता था कि यह कार्रवाई वैज्ञानिक ज्ञान और कौशल से लैस लोगों की बेहद एहतियात के साथ बनाई गई योजना का नतीजा थी.
'सरकार को शक हो जाएगा'

इमेज स्रोत, Getty Images
इमेज कैप्शन, ब्रिटिश भारत के वायसराय लॉर्ड इर्विन
डॉक्टर दर मोहम्मद पठान के अनुसार 1922 की शुरुआत में जब महात्मा गांधी ने 'असहयोग आंदोलन' अचानक ख़त्म कर दिया, तो कांग्रेस से एक क्रांतिकारी धड़े का जन्म हुआ जिसका नाम पड़ा 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन.' यह एसोसिएशन 1928 में 'सोशलिस्ट' शब्द जुड़ने के बाद संक्षेप में एचएसआरए कहलाई.
इस संगठन का घोषणापत्र 'द फिलॉसफ़ी ऑफ़ बॉम्ब' (बम का दर्शनशास्त्र) भगवती चरण वोहरा ने लिखा था, जबकि चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला खां और दूसरे प्रमुख क्रांतिकारी इससे जुड़े थे.
अभिजीत भालराव ने अपनी किताब 'द मैन हू अवेंज्ड भगत सिंह' में विस्तार से लिखा है कि कैसे एक शाम भगवती ने कहा कि हमारे साथी जेल में हैं, कई योजनाएं नाकाम हो चुकी हैं और न्याय व्यवस्था के नाम पर अत्याचार जारी है. इसलिए एक ऐसा क़दम ज़रूरी है जो ब्रिटेन को बता दे कि वह आग से खेल रहा है.
यशपाल ने पूछा कि क्या सुझाव है? भगवती ने कहा, 'सांप का सिर काटना.' आज़ाद ने स्पष्ट किया कि इसका मतलब वायसराय लॉर्ड इर्विन का क़त्ल है. हंसराज उर्फ़ 'वायरलेस' को बुलाया गया, जिन्होंने बताया कि वह दूर से फटने वाला बम बना सकते हैं.
यशपाल की जीवनी 'यशपाल लुक्स बैक' के अनुसार धर्मपाल ने यशपाल को अपने बचपन के दोस्त और विशेषज्ञ इलेक्ट्रिशियन हंसराज 'वायरलेस' से मदद लेने की सलाह दी.
"हंसराज न केवल मदद के लिए तैयार थे बल्कि उनका दावा था कि वे एक छोटा डिवाइस बना सकते हैं जो बम के अंदर लगाया जाएगा, और दूसरा छोटा डिवाइस जो बम से न किसी तार से जुड़ा होगा और न किसी और चीज़ से, बल्कि बम से काफ़ी दूर होगा जो उस पूरे सिस्टम को कंट्रोल करेगा."
"लेकिन फिर हंसराज ने अपना इरादा बदल लिया और वजह यह बताई कि सरकार को उन पर शक हो जाएगा, क्योंकि सरकार जानती है कि ऐसा डिवाइस केवल वही बना सकते हैं. हंसराज आशावादी व उत्साही थे और बिजली के ज़रिए अद्भुत करतब दिखाते थे."
'हंसराज वायरलेस'

इमेज स्रोत, makeheritagefun
इमेज कैप्शन, हंसराज वायरलेस के सहयोगी मिर्ज़ा नसीम चंगेज़ी
हंसराज 'वायरलेस' दक्षिणी पंजाब के शहर लैया से मध्य पंजाब के शहर लायलपुर (अब फ़ैसलाबाद) और फिर पढ़ाई के लिए पंजाब की राजधानी लाहौर चले गए.
हंसराज के स्कूल के क्लासमेट मेहर अब्दुल हक़ ने अपनी आपबीती 'जो हम पे गुज़री' में लिखा है कि छठी जमात में उन्होंने एक ऐसी टॉर्च बनाई थी जिसकी रौशनी से वह लोगों को देखते-देखते सुला देते थे.
वह आगे लिखते हैं, "उन दिनों वायरलेस का आविष्कार अभी आम नहीं हुआ था. किंग जॉर्ज पंचम और हिंदुस्तान के वायसराय के बीच कुछ अहम बातचीत हो रही थी. मेरे इस साथी ने अपने वायरलेस आविष्कार के ज़रिए उस बातचीत को हवा से ही समझ लिया और अगले दिन अख़बारों में छपवा दिया."
"उस दिन से 'वायरलेस' उनके नाम का हिस्सा बन गया और वह 'हंसराज वायरलेस' के नाम से मशहूर हुए. जब मेरे इस दोस्त ने इम्तिहान पास किया तो उसके माता-पिता लायलपुर चले गए. तीन साल बाद वह एक बार फिर लैया आया, उसने अपने कुछ आविष्कारों का प्रदर्शन किया और चला गया."
आयशा सईद ने ऐतिहासिक विषयों की एक वेबसाइट के लिए साल 2016 में मिर्ज़ा नसीम चंगेज़ी का इंटरव्यू लिया, जो भारत की आज़ादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारी थे. वह तब 106 साल के थे और पुरानी दिल्ली में रहते थे. चंगेज़ी ने बताया कि उन्होंने अपने साथियों सलाहुद्दीन और हंसराज वायरलेस के साथ मिलकर लॉर्ड इर्विन की ट्रेन के नीचे बम फोड़ा था.
"हमने हार्डिंग ब्रिज के पास रेलवे लाइन पर बम लगाया और जंगल में छिप गए. उस ज़माने में प्रगति मैदान एक जंगल हुआ करता था. जब लॉर्ड इर्विन की ट्रेन वहां से गुज़री तो बम फट गया. बाद में हमें पता चला कि वे इस हमले में बच गए थे."
हालांकि, कमलेश मोहन ने अपनी किताब 'मिलिटेंट नेशनलिज़्म इन द पंजाब' में लिखा है कि इंद्रपाल और भागराम, यशपाल के साथ पुराना क़िला गए और 22-23 दिसंबर 1929 की दरमियानी रात बम और तार वग़ैरा लगाए.
"अगले दिन सुबह-सुबह यशपाल और भागराम मौके पर पहुंचे. भारी धुंध के कारण यशपाल वायसराय की बोगी आने के समय के साथ बटन दबाने का तालमेल नहीं बिठा सके, हालांकि एक धमाका ज़रूर हुआ."
यशपाल के अनुसार, "हमारी योजना थी कि जैसे ही ट्रेन एक ख़ास पॉइंट पर पहुंचे, बम इंजन के ठीक सामने फट जाए. इंजन पटरी से उतरकर पलटता चला जाएगा. धुंध की वजह से मुझे सिर्फ आवाज़ सुनकर अंदाज़ा लगाना था कि बैटरी का स्विच कब दबाना है."
"मैंने सांस रोक ली, पूरा ध्यान कानों पर लगा दिया, हाथ स्विच पर रखे, केवल आवाज़ से ट्रेन की स्थिति का अंदाज़ा लगाने का इंतज़ार करने लगा. फिर मैंने स्विच दबा दिया. एक पल के लिए भयानक धमाका हुआ! लेकिन उम्मीद के उलट, ट्रेन तेज़ी से नई दिल्ली की ओर बढ़ती चली गई."
मोहन ने लिखा है कि मिलिट्री यूनिफ़ॉर्म के कारण यशपाल पुलिस की पकड़ से बच निकले और भागराम उनके अर्दली के रूप में साथ रहे. यशपाल के अनुसार, "यह तय हुआ था कि इंद्रपाल, हंसराज और भागराम चार बजे की ट्रेन से लाहौर लौटेंगे, लेखराम रोहतक जाएंगे और भगवती ग़ाज़ियाबाद स्टेशन पर मेरा इंतज़ार करेंगे."
भगवती अख़बार पढ़ रहे थे. उनकी आंखों ने सवाल किया, "क्या हुआ?" "मैंने हाथों से न का इशारा किया कि कुछ नहीं हुआ. भगवती भाई को शक हुआ कि शायद हंसराज की बैटरी ख़राब थी. मैंने उन्हें बताया कि धमाका बहुत ज़ोरदार था, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ट्रेन को कोई नुक़सान पहुंचा है."
"भगवती भाई और मैं पैसेंजर ट्राम (ट्रेन) में मुरादाबाद की तरफ़ रवाना हुए. भगवती ने साधारण सूट पहन रखा था और मैंने फ़ौजी वर्दी बदलकर आम कपड़े पहन लिए थे. हम दोनों ट्राम में ख़ामोश और दुखी बैठे थे. जब ट्राम मुरादाबाद पहुंची तो हमने एक अख़बार बेचने वाले को चिल्लाते सुना, "ताज़ा खबर! वायसराय की ट्रेन के नीचे बम धमाका! रेलवे लाइन उड़ा दी गई! एक डिब्बा तबाह! एक आदमी की मौत."
डॉक्टर पठान के मुताबिक़ बाद में एचएसआरए का लाहौर धड़ा अलग हो गया और हंसराज 'वायरलेस' के नेतृत्व में 'आतिशी चक्र' के नाम से स्थापित हुआ. इसने जून 1930 में पूरे पंजाब में बम धमाके किए.
इरफ़ान हबीब अपनी किताब 'टू मेक द डेफ़ हियर: आइडियोलॉजी एंड प्रोग्राम ऑफ़ भगत सिंह' में लिखते हैं कि हंसराज 'वायरलेस' और इंद्रपाल ने पंजाब में 'आतिशी चक्र' नाम का संगठन बनाया ताकि इसे एचएसआरए से न जोड़ा जा सके. हंसराज ने कई जगहों पर एक साथ बम धमाकों की योजना भी तैयार की.
"किसी को क्रांतिकारी पार्टी में मेरे काम की ख़बर तक नहीं थी"

इमेज स्रोत, Waqar Mustafa
पाकिस्तान बनने के बाद इससे जुड़ी 'वायरलेस' की कहानी जांबाज़ मिर्ज़ा के संपादन में 'मजलिस-ए-अहरार' की मासिक पत्रिका 'तबसरा' में 1960 के दशक में क़िस्तों में छपती रही. 'वायरलेस' लिखते हैं कि लॉर्ड इर्विन की स्पेशल ट्रेन का बम हादसा हो चुका था. पंजाब के सात शहरों में एक साथ बम फट चुके थे. पंजाब के कई शहरों में क्रांतिकारियों के कई सेंटर बन चुके थे, लेकिन ब्रिटिश सरकार को बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि इन गतिविधियों के पीछे कौन काम कर रहा है.
'वायरलेस' लिखते हैं कि उनके एक साथी अमरीक सिंह ने बारूद का एक सूटकेस लाहौर के सैयद मिट्ठा बाज़ार की एक दुकान में लस्सी पीते हुए रखा, जो आग के पास होने के कारण फट गया. वह ख़ुद घायल हुए और लाहौर के ग्वालमंडी स्थित अपने केंद्र पर आ गए. पुलिस उनके पीछे-पीछे वहां पहुंच गई और सारा सामान क़ब्ज़े में ले लिया.
"मैं वहां से जा चुका था, लेकिन बदक़िस्मती से एक सूटकेस में मेरे कोट की जेब में एक डायरी रह गई थी, जिसमें मेरा नाम लिखा था. पंजाब भर के बम ऐक्शन की पूरी फ़ाइल भी उसी में थी. इसके अलावा वायसराय की ट्रेन पर इस्तेमाल की गई बैटरी भी वहीं थी."
इसी बारे में मेहर अब्दुल हक़ ने लिखा, "जब एक बार गर्मियों की छुट्टियों में मैं बहावलपुर से लैया आ रहा था. शेरशाह रेलवे स्टेशन पर ट्रेन बदलनी पड़ती थी. मेरी नज़र एक इश्तिहार पर पड़ी जिस पर मेरे उस सहपाठी की तस्वीर छपी थी." यह विज्ञापन सरकार की ओर से था कि और इसमें लिखा था, "कोई भी हंसराज वायरलेस को ज़िंदा या मुर्दा गिरफ़्तार करेगा, उसे दस हज़ार रुपये इनाम दिया जाएगा."
'वायरलेस' ख़ुद लिखते हैं कि उन्होंने एक दोस्त के हाथों घर वालों से सौ रुपये मंगवाए. "दोस्त ने बताया कि कैसे मेरे परिवार को पुलिस के हाथों तकलीफ़ें झेलनी पड़ रही हैं. मैं फ़ौरन स्टेशन की तरफ़ चल दिया. मेरी दाढ़ी बढ़ चुकी थी और बेहद फटे-पुराने कपड़े पहनकर मैं प्लेटफ़ॉर्म के एक कोने में दुबक कर बैठ गया. एक-दो बार कुछ पुलिस वाले मेरे पास आकर बैठे और मेरी ही बातें करने लगे. उनकी बातचीत से बहुत काम की जानकारी मिली." अपनी आपबीती में 'वायरलेस' ने बताया है कि कैसे वह लाहौर से मुल्तान और वहां से सिंध चले गए.
हंसराज 'वायरलेस' सिंध में

इमेज स्रोत, Waqar Mustafa
डॉक्टर दर मोहम्मद पठान लिखते हैं कि चंद्रशेखर आज़ाद ने अल्फ़्रेड पार्क में पुलिस मुठभेड़ के दौरान ख़ुदकुशी कर ली थी, जबकि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को मार्च 1931 में फांसी दे दी गई. आज़ाद की मौत के बाद कोई केंद्रीय नेतृत्व नहीं बचा, संगठन क्षेत्रीय धड़ों में बंट गया और बिना किसी केंद्रीय तालमेल के कार्रवाई होने लगी.
इन हालात में हंसराज 'वायरलेस' ने सिंध को अपने लिए सुरक्षित ठिकाना बनाया. उस समय सिंध में हिंदू और मुस्लिम दोनों क्रांतिकारी सक्रिय थे. 'हुर तहरीक (आंदोलन) शबाब पर थी और सुभाष चंद्र बोस के दौरे ने हिंदू नौजवानों में जोश भर दिया था. हंसराज ने विशेष रूप से हिंदू युवाओं को प्रशिक्षित किया, लेकिन वह सिंध में पकड़े गए.
सिंध में क़ैद और टॉर्चर की कहानी भी उनकी जीवनी में मिलती है. उनकी गतिविधियों पर सिंधी भाषा में काफ़ी सामग्री उपलब्ध है. उनकी हिरासत और हिंसा छोड़ने के वादे पर रिहाई को लेकर कई बार सिंध लेजिस्लेटिव असेंबली में औपचारिक बहस हुई.
कुछ वर्षों बाद वह एक 'शो-मैन' के रूप में उभरे और टिकट लगाकर अपने आविष्कार दिखाने लगे. रेडियो उपकरण, रिमोट कंट्रोल से चलने वाली मशीनें, ऑटोमैटिक जूता पॉलिश मशीन, हाथ के इशारे से जलने-बुझने वाला बल्ब और आवाज़ रिकॉर्ड करने वाला डिवाइस (जब मैग्नेटिक टेप आम नहीं थी). 1944-45 में लाहौर में उनके शो ने काफ़ी प्रभाव छोड़ा.
पाकिस्तान बनने के बाद 'वायरलेस' पूर्वी पंजाब के शहर जालंधर चले गए. इतिहास की किताबों से भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के 16 जनवरी 1948 के एक ख़त का पता चलता है.
इस पत्र में नेहरू ने लिखा था कि हंसराज में प्रतिभा और इनोवेशन की क्षमता है, जनहित में उनका हौसला बढ़ाया जाना चाहिए. "सरकार अगर ख़ाली वर्कशॉप को सरकारी तौर पर चलाए और हंसराज को विशेषज्ञ के तौर पर शामिल करे तो फ़ायदा हो सकता है. नाकामी पर नुकसान कम और कामयाबी पर रोज़गार और दूसरे मौक़े पैदा होंगे."
आज़ादी के बाद उन्होंने पंजाब और उत्तर भारत के मेलों में अपने शो जारी रखे. 1950 के दशक में उन्होंने एक ऐसा डिवाइस भी दिखाया जिससे दूर बैठकर गाड़ी का इंजन बंद हो जाता था.
भारत के अख़बार 'द ट्रिब्यून' में डीएस चीमा लिखते हैं कि 'वायरलेस' अपनी साइकिल पर अलग-अलग तरह के थैले लादे स्कूलों में वैज्ञानिक प्रयोग दिखाते थे और इसी से अपनी जीविका कमाते थे.
"1958 में जब मैं दसवीं का छात्र था, हमें पास के कॉलेज के ऑडिटोरियम में उनके प्रोग्राम के बारे में बताया गया. तीन स्कूलों के नौवीं और दसवीं के छात्र मौजूद थे. एक छोटे क़द के मुस्कुराते व्यक्ति ने हाथ हिलाकर अभिवादन किया. कुछ ही मिनटों में उन्होंने एक सरल व्यवस्था तैयार की."
उनके अनुसार, "एक मैली चादर से अस्थायी कमरा बनाकर दिखाया कि अंदर आने-जाने से बल्ब जलता-बुझता है. फिर ज़ंग लगी नल के नीचे हाथ रखने से पानी ख़ुद बहने और हटाने पर रुकने का प्रदर्शन किया. यह सब हमारे लिए हैरतअंगेज़ था."
"सबसे ज़्यादा वाहवाही ऑटोमैटिक जूता पॉलिश मशीन को मिली. एक छात्र ने जूता लकड़ी के डिब्बे में रखा, मोटर चली, और जब रुकी तो जूता पॉलिश हो चुका था." डीएस चीमा के मुताबिक़ हंसराज 'वायरलेस' अपने वक़्त से काफ़ी आगे के शख़्स थे.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.