बांग्लादेश में भारत क्या चूक गया? आईसीजी की रिपोर्ट और एक्सपर्ट्स से समझिए
शेख़ हसीना की सरकार के समय भारत और बांग्लादेश के रिश्ते मज़बूत रहे, लेकिन अब रिश्तों में तनाव बढ़ रहा है. लेकिन इसकी शुरुआत हाल फ़िलहाल नहीं हुई है.
बांग्लादेश में भारत क्या चूक गया? आईसीजी की रिपोर्ट और एक्सपर्ट्स से समझिए

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इमेज कैप्शन, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में विदेश मंत्रालय के सलाहकार तौहिद हुसैन के साथ भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर
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- Author, रजनीश कुमार
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
- 26 दिसंबर 2025
प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का तीसरा कार्यकाल पिछले साल जून में शुरू हुआ था.
एक महीने बाद जुलाई में बांग्लादेश में शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ लोग सड़कों पर उतर गए.
विरोध प्रदर्शन इतना उग्र हो गया था कि पाँच अगस्त को शेख़ हसीना को अपनी जान बचाकर भारत आना पड़ा.
शेख़ हसीना पर बांग्लादेश में निरंकुश शासन चलाने के आरोप लगे थे.
शेख़ हसीना के पिता मुजीब-उर रहमान बांग्लादेश के संस्थापक थे और उनका भारत से ऐतिहासिक संबंध था.
शेख़ हसीना और भारत के संबंधों में भी वही निरंतरता रही. लेकिन बांग्लादेश की विपक्षी पार्टियाँ और शेख़ हसीना के विरोधी ये आरोप लगाते रहे कि वह भारत के समर्थन से सत्ता में हैं.
पिछले साल अगस्त में भारत ने जब शेख़ हसीना को शरण दी, तो बांग्लादेश में भारत विरोधी भावना को और बल मिला.
बांग्लादेश में शेख़ हसीना को मौत की सज़ा दी जा चुकी है और वहाँ का प्रशासन भारत से उनके प्रत्यर्पण की मांग कर रहा है.
बांग्लादेश के मीडिया में कहा जा रहा है कि भारत ने बांग्लादेश को हमेशा शेख़ हसीना परिवार के आईने में देखा और उससे बाहर निकलकर देखने की कोशिश नहीं की.
इसी महीने 23 दिसंबर को ब्रसल्स स्थित ग़ैर-लाभकारी रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप (आईसीजी) ने भारत-बांग्लादेश संबंधों पर 'आफ्टर द ''गोल्डेन एरा'': गेटिंग बांग्लादेश-इंडिया टाइज बैक ऑन ट्रैक' शीर्षक से 51 पन्नों की एक रिसर्च रिपोर्ट प्रकाशित की थी.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल अगस्त में शेख़ हसीना का सत्ता से बेदख़ल होना, भारत के लिए गहरा झटका था.
आईसीजी ने भारत-बांग्लादेश के संबंधों पर अपनी हालिया रिपोर्ट में विलियम वान शेंडल की किताब 'अ हिस्ट्री ऑफ बांग्लादेश' का एक उद्धरण शामिल किया है, जिससे पता चलता है कि दोनों देश एक-दूसरे को कैसे आंकते हैं.

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इमेज कैप्शन, पिछले साल पांच अगस्त से शेख़ हसीना भारत में रह रही हैं (फ़ाइल फोटो)
दोनों देशों में आम धारणा
'अ हिस्ट्री ऑफ़ बांग्लादेश' में विलियम वान शेंडल ने लिखा है, ''बांग्लादेश की स्वतंत्रता में भारत के समर्थन के बावजूद दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध अक्सर तनावपूर्ण रहे हैं. भले पूरी तरह से शत्रुतापूर्ण नहीं रहे हों. दोनों देश ऐसे विमर्शों को बढ़ावा देते रहे हैं, जो बांग्लादेश के एक स्वतंत्र देश के रूप में उभरने में एक दूसरे की भूमिका को कम करके आंकते हैं.''
''भारत में एक आम धारणा है कि बांग्लादेश ने स्वतंत्रता संग्राम में नई दिल्ली के योगदान के प्रति पर्याप्त कृतज्ञता नहीं दिखाई. वहीं बांग्लादेश में यह व्यापक धारणा है कि भारत ने केवल अपने रणनीतिक हितों के लिए हस्तक्षेप किया था और उसने स्वतंत्र बांग्लादेश के साथ अक्सर उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाया, मानो वह एक सैटलाइट स्टेट हो.''
इसी रिपोर्ट में इंडियन फ़ॉरेन अफ़ेयर्स जर्नल में स्मृति एस पटनायक के एक लेख के उद्धरण को शामिल किया गया है, जिसमें उन्होंने कहा था, ''द्विपक्षीय संबंधों की स्थिति तय करने वाला प्रमुख कारक यह रहा है कि ढाका में अवामी लीग सत्ता में है या नहीं, क्योंकि भारत लंबे समय से इस पार्टी को बांग्लादेश में अपने हितों की रक्षा से जोड़कर देखता रहा है. अन्य समयों में भारत और बांग्लादेश को संबंधों को संतुलित बनाए रखने में कठिनाई हुई है और वे बार-बार आपसी संदेह, उकसावे और खीझ के दौर में फिसलते रहे हैं.''

ढाका के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार द डेली स्टार ने 22 दिसंबर को दोनों देशों के ख़राब होते संबंधों पर संपादकीय लिखा था.
डेली स्टार ने लिखा है, ''यह दोहराना ज़रूरी है कि कई वर्षों तक भारत और बांग्लादेश के बीच संबंधों की नींव शेख़ हसीना की पार्टी अवामी लीग को दिए गए भारत के अडिग समर्थन से मज़बूत रही. अब जब यह पार्टी सत्ता से बेदख़ल हो चुकी है और उसकी निर्वासित नेता भारत से भड़काऊ टिप्पणियाँ कर रही हैं, तो उस आधार को गहरा धक्का पहुँचा है.''
''अब उसकी जगह आपसी संदेह से भरा शून्य पैदा हो गया है. ढाका नई दिल्ली को बांग्लादेश के ख़िलाफ़ साज़िश रचने वाले भगोड़ों के लिए सुरक्षित पनाहगाह के रूप में देखता है. दूसरी ओर, भारत एक ऐसे पड़ोसी को देख रहा है, जो बहुसंख्यकवादी अराजकता की ओर फिसल रहा है. भारत अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के मामले में अंतरिम सरकार के रवैए को संदेह की नज़र से देखता है और ढाका के आश्वासनों को अपर्याप्त मानकर ख़ारिज करता है.''
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफ़ेसर महेंद्र पी लामा मानते हैं कि भारत ने शुरू में शेख़ हसीना का मजबूरी में साथ दिया, क्योंकि ज़िया उर रहमान और ख़ालिदा ज़िया भारत के हितों पर चोट कर रहे थे.

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इमेज कैप्शन, इंदिरा गांधी के साथ बांग्लादेश के संस्थापक शेख़ मुजीब-उर रहमान (फ़ाइल फोटो)
भारत की 'मजबूरी'
प्रोफ़ेसर लामा कहते हैं, ''पूर्वी पाकिस्तान के कारण भारत के पूर्वोत्तर राज्य लगभग कट गए थे. बांग्लादेश बना तो एक उम्मीद जगी. शेख़ मुजीब-उर रहमान और शेख़ हसीना के सत्ता में रहते यह उम्मीद ज़िंदा भी रही. लेकिन बांग्लादेश में ज़िया उर रहमान और हुसैन मोहम्मद इरशाद के उभार ने भारत के हितों पर चोट पहुँचाई. ऐसे में भारत के लिए मजबूरी थी कि शेख़ हसीना और अवामी लीग को मज़बूत किया जाए.''
''लेकिन जब शेख़ हसीना ख़ुद बांग्लादेश में अलोकप्रिय हो रही थीं, तब भारत को अपनी नीति बदलनी चाहिए थी. 2023 के चुनाव में भारत को शेख़ हसीना का बचाव नहीं करना चाहिए था. भारत ने टूटने की आशंका के बावजूद अपने सारे अंडे अवामी लीग की टोकरी में रख दिए थे. ऐसा हमने केवल बांग्लादेश के साथ ही नहीं बल्कि मालदीव और नेपाल में भी किया.''
आईसीजी की रिपोर्ट में भारत और बांग्लादेश के संबंधों में अविश्वास के ऐतिहासिक कारणों का भी उल्लेख किया गया है.
आईसीजी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ''अगस्त 1975 में स्वतंत्रता आंदोलन के नेता और बांग्लादेश के पहले प्रधानमंत्री शेख़ मुजीब-उर रहमान के साथ उनके परिवार के अधिकांश सदस्यों की असंतुष्ट सैन्य अधिकारियों ने हत्या कर दी. यह घटना दोनों देशों के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुई. बांग्लादेश में इन हत्याओं के बाद सैन्य सरकारों का दौर शुरू हुआ. ख़ास कर 1976 से 1981 तक ज़िया उर रहमान के नेतृत्व में (इनकी भी बाद में सेना के ही सदस्यों ने हत्या कर दी) और फिर 1982 से 1990 तक हुसैन मोहम्मद इरशाद के शासन में रहे.''

आईसीजी ने लिखा है, ''इन सरकारों ने भारत के प्रति संतुलन बनाने की नीति के तहत बांग्लादेश को पाकिस्तान, अन्य मुस्लिम-बहुल देशों, चीन और अमेरिका के और क़रीब ले जाने की कोशिश की. ज़िया उर रहमान और इरशाद दोनों ने अपने-अपने शासन को वैधता देने और अवामी लीग का मुक़ाबला करने के लिए राजनीतिक दलों की स्थापना की. बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और जातीय पार्टी. इन्होंने शेख़ मुजीब-उर रहमान की सरकार की धर्मनिरपेक्ष नीतियों को भी पीछे धकेला, जिनमें जमात-ए-इस्लामी को फिर से राजनीति में लौटने की अनुमति देना शामिल था और राजनीतिक लाभ के लिए भारत-विरोधी भावना को हवा दी.''
आईसीजी ने अपनी रिपोर्ट में एस. राजरत्नम स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ सिंगापुर के लिए भूमित्रा चकमा के शोध के उद्धरण का उल्लेख किया है.
भूमित्रा चकमा ने लिखा है, ''1975 के बाद सैन्य शासनों ने अवामी लीग के कई नेताओं की हत्या की या उन्हें जेल में डाला. इससे पार्टी को राजनीतिक हाशिए पर धकेल दिया गया. शेख़ मुजीब-उर रहमान की बेटी शेख़ हसीना, जो अगस्त 1975 में अपने परिवार की हत्या से इसलिए बच गईं क्योंकि उस समय देश से बाहर थीं.''
''शेख़ हसीना ने 1981 में वापसी तक भारत में स्व-निर्वासन से पार्टी का नेतृत्व किया. नई दिल्ली के समर्थन ने अवामी लीग और भारतीय सरकार के बीच घनिष्ठ संबंधों को मज़बूत किया. यह संबंध शेख़ हसीना और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं के बीच व्यक्तिगत रिश्तों पर आधारित था, जो स्वतंत्रता के बाद भारत की राजनीति में प्रमुख रही.''

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इमेज कैप्शन, शेख़ हसीना के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच ऐतिहासिक दूरियां कम हो रही हैं
दोनों देशों के संबंधों में अविश्वास
आईसीजी ने लिखा है, ''ढाका में सैन्य शासन के इन 15 वर्षों के दौरान भारत और बांग्लादेश एक-दूसरे को मुख्यतः सुरक्षा के नज़रिए से देखने लगे. दोनों देशों ने एक-दूसरे के क्षेत्र में सक्रिय विद्रोही समूहों को गुप्त समर्थन दिया. नई दिल्ली ने बांग्लादेश के चटगाँव हिल ट्रैक्ट्स में शांति बहिनी का समर्थन किया.''
''वहीं ढाका ने भारत के उत्तर-पूर्व में सक्रिय विद्रोहियों को हथियारों की आपूर्ति में मदद की और उन्हें बांग्लादेश की धरती पर शिविर स्थापित करने की अनुमति दी. 1980 के दशक में बांग्लादेश से अवैध प्रवासी भारत में एक राजनीतिक मुद्दा बन गया. इसके जवाब में नई दिल्ली ने सीमा पर बाड़ लगाने का काम शुरू किया और सीमावर्ती सुरक्षा को कड़ा किया.''
1990–1991 में बांग्लादेश में लोकतंत्र की वापसी ने भारत में शुरुआत में यह उम्मीद जगाई कि द्विपक्षीय संबंधों में सुधार हो सकता है.
लेकिन बांग्लादेश में सत्ता में आई नई सरकार का नेतृत्व बीएनपी ने किया.
शुरुआती सकारात्मक संकेतों, जैसे 1992 में प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया की भारत यात्रा और दोनों देशों के बीच एक नए व्यापार समझौते, के बावजूद, बेहतर संबंधों की उम्मीदें जल्द ही टूट गईं.
भारतीय अधिकारियों ने बांग्लादेश पर विद्रोहियों को समर्थन जारी रखने का आरोप लगाया और जल-बँटवारे के साथ सीमा निर्धारण जैसे प्रमुख द्विपक्षीय मुद्दों पर बहुत कम प्रगति हो सकी.
जमात-ए-इस्लामी के समर्थन वाली बीएनपी सरकार पर भारत के आरोप के बाद अविश्वास बढ़ गया.
भारत की आंतरिक राजनीति का असर भी दोनों देशों के संबंधों पर पड़ा.
हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी का उदय और दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद बांग्लादेश में भारत-विरोधी भावना बढ़ी.
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद बांग्लादेश में हिंदू समुदायों पर हमले हुए और भारत में भी हिंदू–मुस्लिम सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी.
प्रोफ़ेसर लामा कहते हैं कि भारत की घरेलू राजनीति में मुसलमानों से नफ़रत की राजनीति होगी, तो इसका असर बांग्लादेश पर भी पड़ेगा और वहाँ उदार लोकतंत्र की अपेक्षा नहीं की जा सकती है.
पिछले 16 महीनों से बांग्लादेश–भारत द्विपक्षीय संबंधों में तनाव बना हुआ है.
बीते 10 दिनों में यह तनाव और बढ़ा है. दोनों देश लगातार एक-दूसरे के राजनयिकों को तलब कर रहे हैं और बयान जारी कर रहे हैं.
सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए ढाका ने दिल्ली सहित कम से कम चार स्थानों पर भारत में वीज़ा सेवाएँ निलंबित कर दी हैं. भारत ने भी ढाका सहित चार स्थानों पर अस्थायी रूप से वीज़ा सेवाएँ रोक दी थीं.

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इमेज कैप्शन, बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख शफ़ीक़ुर रहमान के साथ मोहम्मद यूनुस (फ़ाइल फोटो)
बांग्लादेश के मीडिया में भी ऐसी ही बहस
25 दिसंबर को बांग्लादेश के प्रमुख अख़बार प्रथम आलो के अंग्रेज़ी संस्करण ने एक लेख प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है- क्या भारत अवामी लीग पर अपनी निर्भरता से आगे बढ़ेगा?
प्रथम आलो ने लिखा है, ''तेज़ी से अलोकप्रिय होते जा रहे शासक के साथ भारत के क़रीबी संबंधों ने बांग्लादेश में भारत-विरोधी भावना को और भड़काया. जन-आंदोलन के ज़रिए हसीना के सत्ता से हटने के बाद स्थिति भारत के लिए प्रतिकूल हो गई.''
''शेख़ हसीना के 15 वर्षों के निरंकुश शासन के दौरान ढाका–दिल्ली संबंधों के कथित "स्वर्णिम अध्याय" का भविष्य अब गंभीर अनिश्चितता के दौर से गुज़र रहा है. जुलाई 2024 में, एक जन-आंदोलन के बीच पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना सत्ता से बेदखल हो गईं और भारत चली गईं. इसके बाद एक अंतरिम सरकार ने कार्यभार संभाला, जिससे द्विपक्षीय संबंधों में कड़वाहट की शुरुआत हुई. पिछले वर्ष दिसंबर में भी संबंध तनावपूर्ण थे, हालाँकि इस हद तक नहीं."
बांग्लादेश के पूर्व अमेरिकी राजदूत एम. हुमायूँ कबीर ने प्रथम आलो से कहा, "ढाका और दिल्ली के बीच मैंने कभी भी संदेह और अविश्वास का ऐसा स्तर नहीं देखा है. स्थापित अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के तहत, दोनों देशों को एक-दूसरे के राजनयिक मिशनों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए. भारत को वास्तविकता स्वीकार करनी चाहिए और बांग्लादेश के साथ संबंधों में भरोसा लाने की पहल करनी चाहिए क्योंकि दोनों पड़ोसी देश एक-दूसरे पर निर्भर हैं.''
17 सालों बाद बीएनपी के कार्यकारी अध्यक्ष तारिक़ रहमान 25 दिसंबर को लंदन से ढाका वापस आए हैं.
अगर बीएनपी सत्ता में आती है, तो ऐसा माना जा रहा है कि तारिक़ रहमान भी बांग्लादेश के प्रधानमंत्री पद की रेस में आ सकते हैं.
लेकिन बीएनपी के साथ भारत के साथ संबंधों पर सवाल उठते रहे हैं.
हालाँकि इसी महीने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ालिदा ज़िया की सेहत के लिए दुआ की थी और इलाज में मदद की पेशकश की थी.
पीएम मोदी के इस रुख़ का बीएनपी ने स्वागत किया था.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.