छत्तीसगढ़: ईसाई धर्म अपनाने वाली महिला का शव तीन दिन तक गाँव-गाँव भटकता रहा
छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ सालों से ईसाई धर्म अपना चुके लोगों के अंतिम संस्कार को लेकर लगातार विवाद की स्थिति बन रही है. खास तौर पर केरल राज्य से भी बड़े क्षेत्रफल वाले बस्तर में.
छत्तीसगढ़: ईसाई धर्म अपनाने वाली महिला का शव तीन दिन तक गाँव-गाँव भटकता रहा

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इमेज कैप्शन, परिजनों के हिंदू धर्म अपनाने के बाद पुनिया बाई साहू का अंतिम संस्कार हुआ
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- Author, आलोक पुतुल
- पदनाम, रायपुर से बीबीसी हिन्दी के लिए
- 5 घंटे पहले
छत्तीसगढ़ के धमतरी ज़िले के बोराई गाँव की रहने वाली 65 साल की पुनिया बाई साहू ने शायद कभी नहीं सोचा होगा कि उनके जीवन का अंतिम सफ़र इतना लंबा हो जाएगा.
दो साल पहले ईसाई धर्म अपनाने का उनका फ़ैसला उनकी मौत के बाद ऐसा सवाल बन गया, जिसकी वजह से उनका शव तीन दिनों तक अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा में इस गाँव से उस गाँव तक भटकता रहा.
आख़िरकार शुक्रवार को पुनिया बाई साहू का अंतिम संस्कार तब हो पाया, जब उनके परिजनों ने हिंदू धर्म अपनाया.
परिजनों ने पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों के सामने ग्रामीणों और हिंदू संगठनों से माफ़ी मांगी और लिख कर दिया कि भविष्य में उनका ईसाई धर्म से कोई संबंध नहीं रहेगा.
धमतरी ज़िले के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक मणिशंकर चंद्रा ने कहा, "ग्राम बोराई में साहू समाज की एक मृत्यु हुई थी. जिस पर समाज के लोगों में और परिवार में कुछ विवाद चल रहा था. विवाद को लेकर उनकी संस्कार क्रिया के लिए समस्या उत्पन्न हुई थी. जिसको लेकर यहाँ एक सामाजिक बैठक, समाज के लोगों के द्वारा की गई. आख़िर में सामाजिक रूप से उसका निराकरण किया गया है."

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इमेज कैप्शन, पुनिया बाई साहू ने दो साल पहले ईसाई धर्म अपनाया था
असल में बोराई गाँव की पुनिया बाई साहू ने दो साल पहले ईसाई धर्म अपना लिया था.
बुधवार को जब उनकी मौत हुई, तो परिजनों ने गाँव में उनके अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू की. लेकिन गाँव के लोगों और हिंदू संगठनों ने इसका विरोध किया.
उनका कहना था कि महिला ने ईसाई धर्म अपना लिया था, इसलिए गाँव में महिला का अंतिम संस्कार नहीं किया जा सकता.
सैकड़ों लोगों की भीड़ के विरोध के बाद परिजन महिला का शव ले कर तहसील मुख्यालय नगरी पहुँचे, लेकिन वहाँ भी उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा.
सैकड़ों लोगों की भीड़ ने उस गड्ढे को भर दिया, जिसमें महिला को दफ़नाया जाना था.
इसके बाद 25 दिसंबर को जब दुनिया भर में क्रिसमस मनाया जा रहा था, उसी रात मृतक महिला के परिजनों का 'शुद्धिकरण' किया गया.
परिजनों ने इलाक़े के प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के सामने, सामाजिक और हिंदू संगठनों द्वारा बनाए गए शपथ पत्र पर अपनी सहमति जताई और उसका सार्वजनिक तौर पर पाठ किया.
तब कहीं जा कर, अगले दिन हिंदू रीति रिवाज से, महिला का अंतिम संस्कार किया जा सका.
परिजनों ने अपने शपथ पत्र में कहा, "हम परिवार वाले बहकावे में आकर हिंदू धर्म से ईसाई धर्म, ईसाई समाज के कार्यक्रम में सम्मिलित हो रहे थे. अतः सह परिवार मुख्यधारा में हिंदू रीति रिवाज एवं क्षेत्रवासी देवी-देवता की पूजा पाठ एवं ग्रामीण रीति-नीति में साथ देंगे. एवं हमारे पूर्ण परिवार के द्वारा पुनः किसी भी प्रकार से ईसाई धर्म या प्रचारक से कोई संबंध नहीं होगा, पूरा परिवार सर्व समाज क्षेत्र, बोराई से क्षमा प्रार्थना करता है. पुनः वापस ईसाई धर्म में जाने पर हम स्वयं ग्राम छोड़कर अन्य जगह चले जाएँगे."
अंतिम संस्कार को लेकर हिंसा और छत्तीसगढ़ बंद

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इमेज कैप्शन, राजमन सलाम के पिता के अंतिम संस्कार पर भी विवाद हुआ था
छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ सालों से ईसाई धर्म अपना चुके लोगों के अंतिम संस्कार को लेकर लगातार विवाद की स्थिति बन रही है.
ख़ास तौर पर केरल राज्य से भी बड़े क्षेत्रफल वाले बस्तर में. वहाँ अंतिम संस्कार को लेकर होने वाले विवादों के कारण हिंसा की कई घटनाएँ हुई हैं.
धार्मिक स्थलों को कभी आग के हवाले किया गया, तो कभी ज़िले के पुलिस अधीक्षक का सिर फोड़ दिया गया. हिंदू और ईसाई संगठनों के बीच, हिंसक टकराव की घटनाएँ लगातार सामने आती रहती हैं.
धमतरी ज़िले में जिस दिन पुनिया बाई की मौत हुई, उस दिन हिंदू संगठनों ने कांकेर ज़िले के आमाबेड़ा में अंतिम संस्कार को लेकर हुए विवाद के बाद, छत्तीसगढ़ बंद का आयोजन किया था.
इस बंद को चेंबर ऑफ़ कॉमर्स से लेकर कई जातिगत संगठनों ने भी अपना समर्थन दिया था.
15 दिसंबर को कांकेर ज़िले के बड़े तेवड़ा पंचायत के सरपंच राजमन सलाम के पिता चमरा राम सलाम का निधन हुआ.
सलाम परिवार ने उन्हें ईसाई रीति के अनुसार गाँव की अपने निजी ज़मीन पर दफनाया, लेकिन स्थानीय ग्रामीणों और हिंदू संगठनों ने इसका विरोध किया. 17 दिसंबर को दोनों तरफ़ से जमकर हिंसा हुई.
ज़िला प्रशासन ने मामले को संभालने की कोशिश की, तो भीड़ ने पुलिस को भी निशाना बनाया.
इस दौरान पुलिस ने दफ़नाए हुए शव को क़ब्र से निकाल कर, पोस्टमार्टम के लिए उसे रायपुर भिजवाया. इसके बाद हिंदू संगठनों ने पूरे छत्तीसगढ़ को बंद कराया.
मृतक चमरा राम सलाम के बेटे और सरपंच राजमन सलाम कहते हैं, "मैं ईसाई धर्म को मानता हूँ. लेकिन मेरे पिता ईसाई धर्म नहीं मानते थे. उनके निधन के बाद मैंने गाँव के पारंपरिक मांझी, मुखिया, गायता से अनुरोध किया कि उनका अंतिम संस्कार पारंपरिक आदिवासी रीति रिवाज से किया जाए. लेकिन वे तैयार नहीं हुए. अगले दिन मेरे बड़े भाई, जो ईसाई धर्म नहीं मानते, उनके द्वारा मेरे पिता का अंतिम संस्कार किया गया."
राजमन सलाम का कहना है कि उनके पिता के अंतिम संस्कार का मुद्दा धार्मिक नहीं, राजनीतिक है.
उनका दावा है कि सरपंच के चुनाव में उन्हें 214 वोट मिले थे, जबकि बीजेपी से जुड़े विपक्षी उम्मीदवार को महज 123 वोट मिले थे. हारे हुए उम्मीदवार ने ही इसे मुद्दा बनाया.
राजमन कहते हैं, "बीजेपी के सरपंच पद के उम्मीदवार के इशारे पर 17 दिसंबर की दोपहर हिंदू संगठनों से जुड़े सैकड़ों लोग और जन प्रतिनिधि गाँव में पहुँचे और उन्होंने मेरे परिजनों को जमकर पीटा. महिलाओं को भी नहीं बख़्शा गया. इसके अगले दिन पुलिस-प्रशासन ने मेरे पिता के शव को पोस्टमार्टम के लिए निकाला. इस दौरान पुलिस की उपस्थिति में भीड़ ने दो चर्चों को आग के हवाले कर दिया."
'परंपराओं को ख़त्म किया जा रहा'

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इमेज कैप्शन, बीजेपी नेता गुप्तेश उसेंडी
कांकेर के बीजेपी नेता और ज़िला पंचायत के सदस्य गुप्तेश उसेंडी इन आरोपों को हास्यास्पद बताते हैं.
उन्होंने कहा कि मुरिया आदिवासी समाज के लोगों ने राजमन सलाम से अनुरोध किया था कि वे अपने पिता का अंतिम संस्कार वहाँ करें, जहाँ उनके धर्म के मानने वाले लोगों को दफ़नाया जाता है.
लेकिन उन्होंने गाँव वालों को डरा-धमका कर गाँव में ही अपने पिता का अंतिम संस्कार किया.
गुप्तेश उसेंडी ने बीबीसी से कहा, "गाँव के लोगों ने जब विरोध किया, तो सरपंच और उसके साथियों ने आदिवासियों पर हमला बोल दिया और लगभग दो दर्जन से अधिक लोगों के साथ जमकर मारपीट की गई. सरपंच ने दूसरे गाँवों से लोगों को भी बुला कर रखा था. उन्होंने भी आदिवासियों के साथ मारपीट की."
गुप्तेश का मानना है कि आदिवासी संस्कृति को पूरी तरह से ख़त्म करने की साजिश चल रही है.
उनका कहना है कि आदिवासी समाज में गायता, पटेल, सियान जैसी परंपरा है और इनकी अनुमति से ही सुख-दुख से जुड़े सभी आयोजन संपन्न होते हैं.
लेकिन इन आदिवासी परंपराओं को ख़त्म किया जा रहा है और धर्मांतरण से आदिवासियों को आपस में लड़ाया जा रहा है.

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इमेज कैप्शन, भोजराज नाग कांकेर से बीजेपी के सांसद हैं
इस हिंसा में घायल बीजेपी कार्यकर्ताओं और ग्रामीणों से मिलने कांकेर अस्पताल पहुँचे, बीजेपी सांसद भोजराज नाग ने कहा कि पंचायत क़ानून, पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में रूढ़ी प्रथा को मान्यता देता है लेकिन ईसाई धर्म को मानने वाले क़ानून को भी हाशिए पर रखना चाहते हैं.
भोजराज नाग ने बीबीसी से कहा, "आदिवासियों को प्रलोभन दे कर, दबाव बना कर उनका धर्मांतरण किया जा रहा है और उन्हें आदिवासी परंपराओं और क़ानून के ख़िलाफ़ खड़ा किया जा रहा है. ऐसे लोगों को न तो सामाजिक परंपराओं की परवाह है, न सांस्कृतिक परंपराओं की और ना ही क़ानून की. हमारी सरकार जल्दी ही छत्तीसगढ़ में नया धर्मांतरण क़ानून लाने वाली है. इसके बाद ऐसे लोगों को किसी भी हालत में बख़्शा नहीं जाएगा."
लेकिन छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फ़ोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल इन आरोपों से सहमत नहीं हैं.
उनका कहना है कि छत्तीसगढ़ में सरकार तीसरी बार धर्मांतरण विधेयक लाने वाली है.
लेकिन पिछले 25 सालों में राज्य में एक भी ऐसा मामला प्रमाणित नहीं हुआ है, जिसमें दबाव या प्रलोभन के साथ धर्मांतरण की बात सामने आई हो.
राज्य में अंतिम संस्कार को लेकर होने वाले विवादों पर अरुण पन्नालाल कहते हैं, "सवाल यही है कि ईसाई धर्म को मानने वाले अपना अंतिम संस्कार कहाँ करे? क्या यह सरकार की ज़िम्मेवारी नहीं है कि वह दूसरे धर्मों की तरह ईसाई धर्म को मानने वालों के अंतिम संस्कार के लिए भी हर गाँव और पंचायत में ज़मीन चिन्हांकित करे, उसका आबंटन करे? सरकार ख़ुद ही संवैधानिक अधिकारों की अवहेलना कर रही है."
सुप्रीम कोर्ट में बँटा हुआ फ़ैसला

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इमेज कैप्शन, छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म को मानने वालों के अंतिम संस्कार के मामले कोर्ट पहुँचते रहे हैं
छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म को मानने वालों के अंतिम संस्कार को लेकर होने वाले विवाद कई बार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचते रहे हैं.
इसी साल जनवरी में बस्तर के एक ईसाई पादरी सुभाष बघेल के अंतिम संस्कार को लेकर हुए विवाद का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा था.
सुभाष बघेल के बेटे रमेश बघेल को अपने पिता का अंतिम संस्कार गाँव के पारंपरिक क़ब्रिस्तान में करने की इजाज़त नहीं मिली, तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की.
इस वजह से सुभाष बघेल का शव लगभग तीन सप्ताह तक अंतिम संस्कार की प्रतीक्षा में पड़ा रहा.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने इस मामले में सुनवाई करते हुए कहा था कि, "हमें बहुत दुख है कि एक व्यक्ति को अपने पिता को दफ़नाने के लिए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा."
लेकिन 27 जनवरी को अदालत ने इस मामले में विभाजित फ़ैसला सुनाया.
जस्टिस बीवी नागरत्ना का कहना था कि किसी व्यक्ति को केवल उसके धर्म के आधार पर अंतिम संस्कार के अधिकार से वंचित करना संविधान के ख़िलाफ़ है.
उनके मुताबिक़ यह संविधान के अनुच्छेद 14, समानता के अधिकार और अनुच्छेद 15(1) यानी धर्म के आधार पर भेदभाव न करने के सिद्धांत का उल्लंघन है.
उन्होंने कहा कि मृतक और उसके परिवार के साथ जो व्यवहार हुआ, वह गरिमा के साथ जीने और मरने के अधिकार के विपरीत है, और समाधान के तौर पर अंतिम संस्कार परिवार की निजी भूमि पर कराए जाने का सुझाव दिया.
वहीं जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की राय इससे अलग थी.
उनका मानना था कि किसी भी व्यक्ति को यह असीमित अधिकार नहीं है कि वह कहीं भी अंतिम संस्कार की ज़िद करे.
उन्होंने सार्वजनिक व्यवस्था, स्थानीय नियमों और पंचायत की भूमिका पर ज़ोर दिया और कहा कि अंतिम संस्कार तय और अधिसूचित ईसाई कब्रिस्तान में ही होना चाहिए, भले ही वह गाँव से कुछ दूरी पर क्यों न हो.

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चूँकि दोनों जजों की राय मेल नहीं खा रही थी, सुप्रीम कोर्ट ने व्यावहारिक समाधान निकालते हुए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत आदेश दिया कि मृतक का अंतिम संस्कार पास के निर्धारित ईसाई कब्रिस्तान में कराया जाए, ताकि और देरी न हो और शव को सम्मान के साथ दफ़नाया जा सके.
साथ ही राज्य सरकार को शव के परिवहन और सुरक्षा की पूरी व्यवस्था करने का निर्देश भी दिया गया.
इस फ़ैसले को धर्मांतरण, धार्मिक स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक तनाव के बीच संतुलन बनाने की कोशिश के तौर पर देखा गया.
अदालत ने तत्काल मानवीय समाधान तो निकाला, लेकिन किसी व्यापक सिद्धांत या स्पष्ट दिशा-निर्देश पर मुहर नहीं लगाई. यही वजह है कि यह फ़ैसला छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म अपनाने वाले लोगों के अंतिम संस्कार से जुड़े विवादों को पूरी तरह सुलझा नहीं सका.
कांकेर हो या धमतरी, ईसाई धर्म अपना चुके लोगों के अंतिम संस्कार को लेकर सामाजिक विरोध आज भी वैसे ही हैं.
नतीजतन, इस फ़ैसले के बावजूद ईसाई धर्म मानने वालों के सम्मानजनक अंतिम संस्कार का सवाल, छत्तीसगढ़ में अब भी एक संवेदनशील और अनसुलझा मुद्दा बना हुआ है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.