अरावली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फ़ैसले पर रोक लगाई
अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा को लेकर विवाद होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सुओ मोटो लेते हुए सोमवार को इस मामले पर सुनवाई की. इस मामले में अगली सुनवाई 21 जनवरी को होगी.
अरावली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फ़ैसले पर रोक लगाई

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इमेज कैप्शन, राजस्थान में अरावली पहाड़ियों का एक विहंगम दृश्य
2 घंटे पहले
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की सिफ़ारिशों के बाद अरावली की जिस परिभाषा को स्वीकार किया था उस पर रोक लगा दी है.
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा है कि "अरावली पहाड़ियों की परिभाषा से जुड़े 20 नवंबर के आदेश को फ़िलहाल स्थगित रखा जाए, क्योंकि इसमें कई ऐसे मुद्दे हैं जिनकी और जाँच की ज़रूरत है."
पीठ ने अरावली पहाड़ियों की परिभाषा को लेकर पहले बनी सभी समितियों की सिफ़ारिशों का आकलन करने के लिए एक नई उच्चस्तरीय समिति गठित करने का प्रस्ताव भी दिया है.
अदालत ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से भी कहा है कि वे प्रस्तावित समिति की संरचना समेत इस मामले में अदालत की सहायता करें.
अब इस मामले की अगली सुनवाई 21 जनवरी को होगी.
अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा को लेकर विवाद होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद से संज्ञान लेते हुए सोमवार को इस मामले पर सुनवाई की.
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, "हम निर्देश देते हैं कि समिति की सिफ़ारिशें और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्ष फ़िलहाल स्थगित रहेंगे. इस मामले की सुनवाई 21 जनवरी, 2026 को होगी."
सुप्रीम कोर्ट के अरावली पहाड़ियों की परिभाषा बदलने के बाद लगभग पूरे उत्तर भारत में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे.
फ़ैसले के बाद अरावली विरासत जन अभियान की संयोजक नीलम अहलूवालिया ने बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा से कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने नई परिभाषा के प्रभाव पर विस्तृत स्वतंत्र अध्ययन का आदेश दिया है. अरावली संरक्षण की मांग को लेकर जन आंदोलन जारी रहेगा."
अरावली दुनिया की सबसे पुरानी भूगर्भीय संरचनाओं में से एक है, जो राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और राजधानी दिल्ली तक फैली हुई है.
केंद्र सरकार की सिफ़ारिशों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की जिस परिभाषा को स्वीकार किया था. उसके अनुसार आसपास की ज़मीन से कम से कम 100 मीटर (328 फीट) ऊँचे ज़मीन के हिस्से को ही अरावली पहाड़ी माना जाएगा.
दो या उससे ज़्यादा ऐसी पहाड़ियाँ, जो 500 मीटर के दायरे के अंदर हों और उनके बीच ज़मीन भी मौजूद हो, तब उन्हें अरावली शृंखला का हिस्सा माना जाएगा.
पर्यावरणविदों का कहना है कि सिर्फ़ ऊँचाई के आधार पर अरावली को परिभाषित करने से कई ऐसी पहाड़ियों पर खनन और निर्माण के लिए दरवाज़ा खुल जाने का ख़तरा पैदा हो जाएगा, जो 100 मीटर से छोटी हैं, झाड़ियों से ढँकी हुईं और पर्यावरण के लिए ज़रूरी हैं.
हालाँकि केंद्र सरकार का कहना है कि नई परिभाषा का मक़सद नियमों को मज़बूत करना और एकरूपता लाना है, न कि सुरक्षा को कम करना.
लोग विरोध क्यों कर रहे हैं?

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इमेज कैप्शन, फरवरी, 2019 में हरियाणा सरकार के पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम, 1900 से अरावली को ख़तरा मान लोग पहले भी इन प्राचीन पहाड़ियों को बचाने के लिए सड़क पर उतरे थे (फ़ाइल फ़ोटो)
लेकिन इस मामले को लेकर बीते हफ़्ते गुरुग्राम और उदयपुर समेत कई शहरों में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुए.
इनमें स्थानीय लोग, किसान, पर्यावरण कार्यकर्ताओं के अलावा कुछ जगहों पर वकील और राजनीतिक दल भी शामिल हुए.
पीपल फ़ॉर अरावलीज़ समूह की संस्थापक सदस्य नीलम आहलूवालिया ने बीबीसी से कहा कि नई परिभाषा अरावली की अहम भूमिका को कमज़ोर कर सकती है.
उन्होंने कहा कि अरावली उत्तर पश्चिम भारत में "रेगिस्तान बनने से रोकने, भूजल को रीचार्ज करने और लोगों की आजीविका बचाने" के लिए ज़रूरी है.
विशेषज्ञों का कहना है कि छोटी-छोटी झाड़ियों से ढँकी पहाड़ियाँ भी रेगिस्तान बनने से रोकने, भूजल रीचार्ज करने और स्थानीय लोगों के रोज़गार में अहम योगदान देती हैं.
अरावली बचाने के आंदोलन से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत टोंगड़ कहते हैं, "अरावली को सिर्फ़ ऊँचाई से नहीं बल्कि उसके पर्यावरणीय, भूगर्भीय और जलवायु संबंधी महत्व से परिभाषित किया जाना चाहिए."
उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहाड़ों और पहाड़ी प्रणालियों की पहचान उस काम से होती, जो उनके होने से संभव होते हैं न कि ऊँचाई के किसी मनमाने पैमाने से.
वह कहते हैं, "ज़मीन का कोई भी हिस्सा जो भूगर्भीय रूप से अरावली का हिस्सा है और पर्यावरण संरक्षण या रेगिस्तान बनने से रोकने में अहम भूमिका निभाता है, उसे अरावली माना जाना चाहिए, चाहे उसकी ऊँचाई कितनी भी हो."
कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि सरकार अरावली क्षेत्रों को वैज्ञानिक मानकों से परिभाषित करे, जिसमें उसका भूगोल, पर्यावरण, वन्यजीव संपर्क और जलवायु संघर्ष क्षमता शामिल हो.
टोंगड़ चेतावनी देते हैं कि अदालत की नई परिभाषा से खनन, निर्माण और व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे पारिस्थितिकीय तंत्र को नुक़सान होने का ख़तरा बढ़ जाएगा.
विपक्षी दलों ने भी इस मामले में अपनी आवाज़ तेज़ कर दी है. उनका कहना है कि नई परिभाषा से पर्यावरण और पारिस्थितिकी को गंभीर नुक़सान पहुँच सकता है.
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि अरावली की रक्षा को 'दिल्ली का अस्तित्व बचाने से अलग नहीं किया जा सकता.'
राजस्थान कांग्रेस के नेता टीका राम जुल्ली ने अरावली को राज्य की 'जीवनरेखा' बताया और कहा कि अगर यह न होती तो 'दिल्ली तक का पूरा इलाक़ा रेगिस्तान बन गया होता.'
सरकार का क्या कहना है?

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इमेज कैप्शन, रणथंभौर नेशनल पार्क, राजस्थान, में टहलता एक नर बंगाल टाइगर. पीछे अरावली की पहाड़ियां दिख रही हैं. (फ़ाइल फ़ोटो)
बीते हफ्ते केंद्र सरकार ने इस मामले में एक बयान जारी किया था. केंद्र सरकार की ओर से जारी बयान में गया कि नई परिभाषा का मक़सद नियमों को मज़बूत करना और एकरूपता लाना है.
बयान में यह भी कहा गया था कि खनन को सभी राज्यों में समान रूप से नियंत्रित करने के लिए एक स्पष्ट और वस्तुनिष्ठ परिभाषा ज़रूरी थी.
इसमें जोड़ा गया था कि नई परिभाषा पूरे पहाड़ी तंत्र को शामिल करती है , जिसमें ढलानें, आसपास की ज़मीन और बीच के इलाक़े शामिल हैं ताकि पहाड़ी समूहों और उनके आपसी संबंधों की सुरक्षा हो सके.
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने कहा था कि यह मान लेना ग़लत है कि 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली हर ज़मीन पर खनन की इजाज़त होगी.
सरकार का कहना था कि अरावली पहाड़ियों या शृंखलाओं के भीतर नए खनन पट्टे नहीं दिए जाएँगे और पुराने पट्टे तभी जारी रह सकते हैं, जब वे टिकाऊ खनन के नियमों का पालन करें.
मंत्रालय ने यह भी स्पष्ट किया था कि 'अभेद्य' क्षेत्रों, जैसे कि संरक्षित जंगल, पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र और आर्द्रभूमि में खनन पर पूरी तरह रोक है.
हालाँकि इसका अपवाद कुछ विशेष, रणनीतिक और परमाणु खनिज हो सकते हैं, जिसकी अनुमति क़ानूनन दी गई हो.
पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा था कि 1,47,000 वर्ग किलोमीटर में फैली अरावली शृंखला का सिर्फ़ लगभग 2% हिस्सा ही संभावित रूप से खनन के लिए इस्तेमाल हो सकता है और वह भी विस्तृत अध्ययन और आधिकारिक मंज़ूरी के बाद.
हालाँकि, विरोध कर रहे कई समूहों ने कहा था कि प्रदर्शन जारी रहेंगे और वे अदालत की नई परिभाषा को चुनौती देने के लिए क़ानूनी विकल्प तलाश रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.