ज़हरीली हवा, टूटी सड़कें और फैले कचरे, तेज़ जीडीपी वृद्धि के बावजूद भारत के बड़े शहर रहने लायक क्यों नहीं बन पा रहे
मुंबई - जिसे 1990 के दशक में खुले तौर पर "दूसरा शंघाई" बनाने का सपना देखा गया था लेकिन आज तक उस महत्वाकांक्षा को पूरा नहीं किया जा सका.
ज़हरीली हवा, टूटी सड़कें और फैले कचरे, तेज़ जीडीपी वृद्धि के बावजूद भारत के बड़े शहर रहने लायक क्यों नहीं बन पा रहे

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इमेज कैप्शन, भारत के शहरों से रोज़ करोड़ों टन कूड़ा निकलता है लेकिन इसके संसाधन की उचित व्यवस्था नहीं है
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- Author, निखिल इनामदार
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
- 2 घंटे पहले
"जयपुर के शाही आकर्षण की तलाश में हैं? यहाँ मत आइए, बस एक पोस्टकार्ड ख़रीद लीजिए."
हाल ही में इस शहर के एक स्थानीय टैक्सी चालक ने मज़ाक में मुझसे यह कहा था.
मैंने उससे पूछा था कि राजस्थान की सुनहरी आभा वाली राजधानी, जहाँ सैलानी भव्य महलों और शानदार किलों के लिए आते हैं, इतनी जर्जर क्यों दिख रही है.
उसके जवाब में वह निराशा झलक रही थी जो न सिर्फ़ जयपुर बल्कि कई भारतीय शहरों के ख़राब होने से पैदा हुई है: ट्रैफ़िक से घुटते हुए, गंदी हवा से लिपटे हुए, जगह-जगह कचरे के ढेरों से अटे पड़े और अपनी शानदार विरासत के अवशेषों के प्रति उदासीन.
जयपुर में आपको सबसे शानदार उदाहरण के रूप में नज़र आती हैं- सदियों पुरानी इमारतें, जिनकी शक्ल तंबाकू की पीकों ने बिगाड़ दी है और वह कार मैकेनिक की वर्कशॉप के साथ जगह के लिए जूझती नज़र आती हैं.
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इससे सवाल उठता है: जब राष्ट्रीय स्तर पर छवि चमकाने के लिए सैकड़ों अरब रुपए खर्च किए जा रहे हैं, तो भारतीय शहर रहने लायक़ क्यों नहीं बन पा रहे हैं?
भारी टैरिफ़, निजी ख़र्च में कमी और ठहरी हुई निर्माण क्षमता के बावजूद भारत की तेज़ वृद्धि की वजह मुख्य रूप से मोदी सरकार के बुनियादी ढाँचे को अपग्रेड करने के लिए किया जाने वाला सरकारी ख़र्च है.

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इमेज कैप्शन, भारत की 'सिलिकॉन वैली' बेंगलुरु के ट्रैफ़िक जाम की शिकायत नागरिक और अरबपति उद्यमी दोनों करते हैं
जाम से सब परेशान, आम भी और ख़ास भी
पिछले कुछ सालों में भारत ने चमचमाते हवाई अड्डे, कई-लेन वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और मेट्रो ट्रेन नेटवर्क बनाए हैं. इसके बावजूद इसके कई शहर रहने-लायक की रैंकिंग में सबसे नीचे आते हैं. पिछले कुछ सालों में लोगों की कुंठा उबाल पर पहुंच गई है.
बेंगलुरु को अक्सर भारत की सिलिकॉन वैली कहा जाता है क्योंकि यहाँ कई आईटी कंपनियों और स्टार्टअप के मुख्यालय हैं.
यहां के ट्रैफ़िक जाम और कचरे के ढेरों से तंग आकर आम नागरिकों और अरबपति उद्यमियों, दोनों ने सार्वजनिक रूप से नाराज़गी जताई है.
देश की वित्तीय राजधानी मुंबई में नागरिकों ने गड्ढों की बिगड़ती समस्या के ख़िलाफ़ बमुश्किल किया जाने वाला विरोध प्रदर्शन किया, क्योंकि जाम हो रखी सीवर लाइनों ने लंबे मॉनसून के दौरान सड़कों पर कचरा और गंदा पानी फैला दिया.
सर्दियों में दिल्ली की बेचैनी सालाना हो गई है. जहरीले स्मॉग ने बच्चों और बुज़ुर्गों को हांफने पर मजबूर कर दिया है और कुछ को तो डॉक्टरों ने शहर छोड़ने की सलाह दी है.
यहाँ तक कि इस महीने फुटबॉलर लियोनेल मेसी की यात्रा के दौरान भी राजधानी की हवा की ख़राब गुणवत्ता के खिलाफ़ लगे प्रशंसकों के नारों की ही चर्चा रही.
तो फिर ऐसा क्यों है कि भारत की तेज़ जीडीपी वृद्धि उसके जर्जर शहरों के पुनर्निर्माण की ओर नहीं ले जा रही है? जबकि चीन के उभार के सालों में तेज़ आर्थिक विकास ने उसके शहरों को नया रूप दिया था.
उदाहरण के लिए, मुंबई - जिसे 1990 के दशक में खुले तौर पर "दूसरा शंघाई" बनाने का सपना देखा गया था – लेकिन आज तक उस महत्वाकांक्षा को पूरा नहीं किया जा सका?
बुनियादी ढांचे के अनुभवी विशेषज्ञ विनायक चटर्जी ने बीबीसी से कहा, "इसकी जड़ें ऐतिहासिक हैं - हमारे शहरों के पास शासन का कोई ठोस मॉडल नहीं है,"
वह कहते हैं, "जब भारत का संविधान लिखा गया था, उसमें सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात केंद्र और राज्य सरकारों तक सीमित थी. दरअसल तब यह कल्पना नहीं की गई थी कि हमारे शहर इतने विशाल हो जाएंगे कि उन्हें अलग शासन प्रणाली की ज़रूरत होगी."

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इमेज कैप्शन, सर्दियों में दिल्ली में ज़हरीला स्मॉग सालाना बात हो गई है
सुधार की कोशिश, जो पूरी सफल न हो सकी
विश्व बैंक का अनुमान है कि अब आधा अरब से अधिक भारतीय, यानी देश की लगभग 40% आबादी, शहरों में रहती है. यह 1960 की तुलना में चौंकाने वाली वृद्धि है, तब केवल सात करोड़ भारतीय शहरों में रहते थे.
चटर्जी के अनुसार, संविधान के 74वें संशोधन के ज़रिए 1992 में एक कोशिश की गई थी और 'आख़िरकार शहरों को अधिकार दिया गया कि वे अपनी तक़दीर खुद संवार सकें'.
स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा दिया गया और शहरी शासन का विकेंद्रीकरण किया गया, लेकिन इनमें से कई प्रावधान कभी पूरी तरह लागू ही नहीं हुए.
"निहित स्वार्थ नौकरशाह और ऊंचे स्तर की सरकारें सत्ता का विकेंद्रीकरण और स्थानीय निकायों को सशक्त बनाने नहीं देते."
यह चीन से बिल्कुल अलग है, जहां शहरों के मेयर के पास शहरी योजना, बुनियादी ढांचे और यहां तक कि निवेश की मंज़ूरी देने तक की, व्यापक कार्यकारी शक्तियां होती हैं.
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन थिंक टैंक में विशिष्ट फ़ेलो रामनाथ झा कहते हैं कि चीन का प्लानिंग मॉडल बहुत ही केंद्रीकृत है, लेकिन स्थानीय सरकारों को क्रियान्वयन की स्वतंत्रता होती है. साथ ही उन पर केंद्र की निगरानी होती है, जहाँ से उन्हें इनाम और सज़ा दोनों मिलते हैं.
झा कहते हैं, "राष्ट्रीय स्तर पर दिशा और भौतिक लक्ष्यों के मामले में सख़्त आदेश होते हैं, जिन्हें शहरों को हासिल करना होता है."
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन के अनुसार, चीन के बड़े शहरों के मेयरों के कम्युनिस्ट पार्टी की शीर्ष समिति में शक्तिशाली संरक्षक होते हैं और बड़े परफ़ॉर्मेंस इंसेंटिव, इन पदों को 'आगे पदोन्नति के लिए अहम सीढ़ियां' बना देते हैं.
चटर्जी सवाल करते हैं, "भारत के बड़े शहरों के कितने मेयरों के नाम हम जानते हैं?"

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इमेज कैप्शन, मुंबई में सड़कों के गड्ढों के ख़िलाफ़ लोगों ने प्रदर्शन किया
शहरों में अव्यवस्था पर लोगों की भी चुप्पी
अंकुर बिसेन, वेस्टेड नाम की किताब के लेखक हैं, जो भारत की स्वच्छता समस्याओं के इतिहास पर आधारित है.
वह कहते हैं कि भारतीय शहरों को चलाने वाले मेयर और स्थानीय परिषदें "नागरिकों के सबसे क़रीब और सरकार की सबसे कमज़ोर इकाइयां हैं और उन्हें सबसे कठिन समस्याओं को हल करने का काम सौंपा गया है."
"वे बहुत कमज़ोर स्थिति में होती हैं - और उनके पास राजस्व जुटाने, लोगों की नियुक्ति करने, या धन आवंटित करने की शक्तियां बहुत सीमित हैं. उनके बजाय, राज्यों के मुख्यमंत्री सुपर-मेयर की तरह काम करते हैं और फ़ैसले लेते हैं."
वह कहते हैं कि कुछ अपवाद ज़रूर रहे हैं, जैसे कि 1990 के दशक में प्लेग के बाद सूरत शहर, या मध्य प्रदेश का इंदौर - जहां राजनीतिक वर्ग ने नौकरशाहों को मज़बूत किया और उन्होंने बड़े बदलाव किए.
इसके साथ ही बिसेन कहते हैं, "लेकिन ये नियम के अपवाद थे. ये काम व्यक्तिगत प्रतिभा की वजह से हुए न कि ऐसे सिस्टम के चलते जो किसी ख़ास नौकरशाह के चले जाने के बाद भी काम करता रहे."
ख़राब शासन व्यवस्था से अलग भारत और गहरी चुनौतियों का सामना कर रहा है.
15 साल से भी पहले हुई इसकी पिछली जनगणना के अनुसार शहरी आबादी 30% थी. अनौपचारिक रूप से अब माना जाता है कि देश का लगभग आधा हिस्सा शहरी रूप ले चुका है लेकिन अगली जनगणना 2026 तक टल गई है.
बिसेन पूछते हैं, "आप किसी समस्या को हल करना शुरू भी करेंगे कैसे, अगर आपके पास शहरीकरण की सीमा और प्रकृति पर डेटा ही नहीं है?"
विशेषज्ञों का कहना है कि डेटा की कमी और भारतीय शहरों को बदलने के लिए बनाए गए ढांचों - जिन्हें 74वें संवैधानिक संशोधन में विस्तार से बताया गया था - का लागू न होना, भारत के ज़मीनी लोकतंत्र के कमज़ोर होने को दर्शाता है.
चटर्जी कहते हैं, "अजीब बात यह है कि हमारे शहरों की हालत को लेकर कहीं कोई आक्रोश नहीं है, जैसा कुछ साल पहले भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ था."
बिसेन कहते हैं, भारत को एक प्राकृतिक 'बोध चक्र' से गुजरना होगा. वह 1858 में लंदन की भयानक बदबू का उदाहरण देते हैं, जिसने सरकार को शहर के लिए नया सीवरेज सिस्टम बनाने के लिए मजबूर किया और उससे हैज़े के बड़े प्रकोप भी ख़त्म हो गए.
"आमतौर पर ऐसे ही घटनाक्रमों के दौरान, जब हालात उबाल पर पहुंच जाते हैं, तब मुद्दों को राजनीतिक महत्व मिलता है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.