मनु की प्रतिमा पर कालिख पोतने राजस्थान गई थीं महाराष्ट्र की दो सहेलियां, उसके बाद क्या हुआ
दूसरों के घर काम करके परिवार का भरण-पोषण करने वाली कांताबाई अहिरे दिल्ली में संविधान की प्रति जलाए जाने से भावुक और गुस्सा हो गई थीं और उधार लेकर महाराष्ट्र से जयपुर पहुंचीं थीं.
मनु की प्रतिमा पर कालिख पोतने राजस्थान गई थीं महाराष्ट्र की दो सहेलियां, उसके बाद क्या हुआ

इमेज कैप्शन, कांताबाई अहिरे और शीलाबाई पवार
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- Author, प्रवीण सिंधू
- पदनाम, बीबीसी मराठी संवाददाता
- 9 घंटे पहले
"दिल्ली में, 2018 के मध्य में उन मनुवादियों ने हमारे संविधान को जला दिया था. उस समय मैं एक महिला के घर में बर्तन धोने का काम कर रही थी. तभी उस महिला ने कहा, 'दिल्ली में आपका संविधान जला दिया गया.' मुझे उस पर बहुत गुस्सा आया. मैं आग बबूला हो गई. मैंने उससे कहा, 'संविधान आपका भी है. हमारे साहब प्रथम श्रेणी के अधिकारी हैं, वे मनुस्मृति पर चलते हैं या संविधान पर चलते हैं?' ऐसा पूछकर मैं घर चली आई."
दूसरों के घर काम करके परिवार का भरण-पोषण करने वाली कांताबाई अहिरे भावुक होकर बातें कर रही थीं.
कांताबाई ने 2018 में राजस्थान उच्च न्यायालय परिसर में मनु की प्रतिमा को कालिख पोती थी. इस काम में उन्होंने अपनी सहेली शीलाबाई पवार को भी साथ लिया था.
इसके बाद दोनों ने जयपुर पुलिस की हिरासत में 8 दिन और जेल में 18 दिन बिताए. उन्होंने बीबीसी मराठी से बात करते हुए पूरी घटना के बारे में बताया.
दिल्ली में एक संगठन ने आरक्षण नीति के विरोध में संविधान की प्रति जला दी थी.
माना जा रहा था कि आज़ाद सेना नामक संगठन ने यह काम किया है.
इसके बाद, संविधान जलाने का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इस घटना की शिकायत पुलिस में दर्ज कराई गई, जिसके बाद दो लोगों को गिरफ्तार किया गया.
इस घटना के बाद देशभर में प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं.
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उन्होंने मनु की मूर्ति पर कालिख क्यों पोती?
कांताबाई कहती हैं, "कई नेता कहते हैं कि बाबासाहेब ने 25 दिसंबर को मनुस्मृति जलाई थी. हालांकि, मुझे पता चला कि जयपुर उच्च न्यायालय में मनु की एक प्रतिमा है. इसलिए मैंने वहां जाने का फैसला किया. मैंने इस मामले पर अच्छी तरह विचार किया और न घर में किसी को बताया और न ही इस बारे में बात की. मैंने अपनी साथी शीलाबाई को फ़ोन किया और उसे अपने साथ जयपुर ले गई."
बर्तन मांजकर अपना जीवन यापन करने वाली कांताबाई और साल में 6 महीने गन्ने की कटाई के लिए कर्नाटक जाने वाली और बाकी समय निर्माण क्षेत्र में काम करने वाली शीलाबाई के लिए जयपुर की यात्रा आसान नहीं थी.
कांताबाई कहती हैं, "जाने से पहले मुझे पैसों का इंतजाम करना पड़ा. मैंने ब्याज पर 20,000 रुपये लिए."
कांताबाई छत्रपति संभाजीनगर से जयपुर की यात्रा के बारे में बताती हैं, "पहले मैं रेलवे स्टेशन गई और पूछताछ की. शनिवार को संभाजीनगर से जयपुर के लिए एक ट्रेन थी. उस समय वह ट्रेन हर हफ्ते चलती थी. फिर मैं शीलाबाई को लेकर जयपुर गई. शनिवार को निकलने के बाद हम सोमवार को जयपुर पहुंचे. वहां पहुंचकर मैंने पूछा कि अदालत कहां है और मैं वहीं चली गई."
कांताबाई आगे कहती हैं, "मनु महिला विरोधी था. इसलिए मुझे लगा कि उसके पुतले पर कालिख पोतनी चाहिए. उन लोगों ने हमारी इतनी बड़ी संविधान की प्रति जलाई थी. इसलिए हमने सोचा कि उनके मनु का पुतला ही गिरा दें, लेकिन वह संभव नहीं हुआ, तो हमने उस पर कालिख पोत दी. कालिख पोतने के बाद हम वहीं खड़े रहे और 'संविधान ज़िंदाबाद, मनुवाद मुर्दाबाद' के नारे लगाए. तभी सारी जनता दौड़कर आ गई. वकील भी आए. उन मनुवादियों ने हमें बहुत मारा-पीटा."
'देश संविधान के आधार पर चलता है, मनुस्मृति पर नहीं'
मनु प्रतिमा पर कालिख पोते जाने के बाद जो कुछ हुआ, उसके बारे में बात करते हुए कांताबाई कहती हैं, "उन्होंने एक पुलिस की गाड़ी बुलाई और हमें उसी गाड़ी में बिठाकर अदालत ले गए. वहां से उन्होंने हमें सीधे पुलिस स्टेशन में डाल दिया. हमने कहा कि हम आंबेडकरवादी हैं. पुलिस ने हमारी पिटाई की. हम 8 दिन पुलिस हिरासत में रहे और 18 दिन जेल में रहे."
उन्होंने कहा, "जेल में वे हमसे फर्श पर पोछा लगवाते थे, बर्तन धुलवाते थे, झाड़ू लगवाते थे. जब तक हम वहां रहे, उन्होंने हमसे ही वह काम करवाया."

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इमेज कैप्शन, कांताबाई जब जयपुर में थीं तो संभाजीनगर में उनके मकान मालिक ने उनके परिवार को घर से निकाल दिया था.
वह कहती हैं, "हमें न तो वहां की पुलिस से डर लगा और न ही जेल से. जेल में भी, जब हम बातें करते थे, तो कहते थे, 'अच्छा हुआ कि मनु के मूर्ति को कालिख पोती. इस मूर्ति को यहां से हटा देना चाहिए.' हमने वहां अपने घर के बारे में सोचा तक नहीं. हम फिर से जयपुर आएंगे और इस मूर्ति को हटाने की मांग करेंगे. एक आम नागरिक होने के नाते, हम अदालत को पत्र लिखेंगे और कहेंगे कि किसी भी महान व्यक्ति की मूर्ति वहां अच्छी लगेगी, लेकिन हम इस महिला विरोधी मूर्ति को नहीं सहेंगे."
कांताबाई ने सीधा सवाल पूछा, "देश मनुस्मृति पर नहीं चलता, देश संविधान पर चलता है. इस मूर्ति की क्या आवश्यकता है?"
जेल में रहते समय कांताबाई और शीलाबाई की ज़मानत करवाने के लिए कई वकील आए लेकिन उन्होंने कई दिनों तक किसी के भी वकालतनामे पर हस्ताक्षर नहीं किए.
इस बारे में कांताबाई कहती हैं, "जब जयपुर के वकील बाबूलाल बैरवा ने कहा कि वह आंबेडकरवादी हैं, जय भीम हैं, तब मुझे उन पर विश्वास हुआ. इसलिए मैंने उनके वकालतनामे पर हस्ताक्षर किए. फिर उन्हीं वकील साहब ने हमारी ज़मानत कराई."
जेल से बाहर आने के बाद भी पैसों की कमी के कारण कांताबाई और शीलाबाई तुरंत घर नहीं लौट सकीं.
जयपुर की जेल से रिहा होने के बाद वह अजमेर चली गईं. उन्होंने बताया कि जयपुर से औरंगाबाद (अब छत्रपति संभाजीनगर) के लिए कोई ट्रेन नहीं थी और हमारे पास अन्य गाड़ी से जाने के लिए पैसे भी नहीं थे. हम खाने के लिए भी तरस रहे थे, ऐसा वह बताती हैं. इसलिए वह 8 दिन अजमेर में रहीं. एक होटल में बर्तन धोने का और झाडू लगाने का काम किया, फिर छत्रपति संभाजीनगर लौट आईं. हालांकि, उनका संघर्ष अभी ख़त्म नहीं हुआ था.
'शिक्षित महिलाओं को कुछ करना चाहिए'

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इमेज कैप्शन, कांताबाई कहती हैं कि कुछ लोग जेल में भी कह रहे थे कि मनु की मूर्ति को कालिख पोतकर उन्होंने अच्छा किया
वह इस संघर्ष के बारे में कहती हैं, "जब हम जयपुर से संभाजीनगर आए, तो हमारा परिवार सड़क पर आ गया था. मनु की मूर्ति पर काला रंग फेंकने का हमारा वीडियो वायरल हो गया था और यह ख़बर अख़बारों में छप गई थी. इसलिए मकान मालिक ने मेरे परिवार और मेरे बच्चों को सड़क पर निकाल दिया."
कांताबाई बताती हैं, "मैंने मकान मालिक से पूछा, 'साहब, आपने घर खाली क्यों किया?' उन्होंने कहा, 'तुम एक खतरनाक औरत हो.' मैंने कहा, 'क्या तुम्हें मनुस्मृति पसंद आती है? क्या तुम्हें संविधान पसंद नहीं आता?'
"इसके बाद मैं कुछ दिनों के लिए रास्ते पर ही रही. मैंने कुछ दिनों के लिए एक घर किराए पर लिया. मैं कुछ रिश्तेदारों के यहां भी रही."
उस घटना को 7 साल हो गए हैं, लेकिन आज भी जयपुर में स्थित मनु की मूर्ति कांताबाई को सताती है. वह कहती हैं, "पढ़े-लिखे न होते हुए भी हमने यह कदम उठाया. अब सभी शिक्षित महिलाओं को उस मूर्ति के ख़िलाफ़ कुछ करना चाहिए. उस मूर्ति को वहां से हटाना चाहिए."
उन्होंने कहा, "संविधान से सभी को लाभ होता है. हमें संविधान को बचाने के लिए आगे आना होगा. हमें याद रखना चाहिए कि हम संविधान की वजह से ही जीते हैं, संविधान की वजह से ही खाते हैं. बकरी की तरह जीने की बजाय, एक दिन के लिए शेर की तरह जियो- ये बाबासाहेब के शब्द हैं."
हमने इस घटना के बारे में कांताबाई की सहेली शीलाबाई से भी बात करने की कोशिश की. हालांकि, निर्माण क्षेत्र में काम करने वाली शीलाबाई साल में 6 महीने कर्नाटक में गन्ने की कटाई का काम करने के लिए घर से दूर रहती हैं. इसलिए, वह इस बारे में बात करने के लिए उपलब्ध नहीं थीं. हालांकि, कांताबाई का कहना है कि शीलाबाई को भी यह काम पसंद आया था.
आंबेडकर ने मनुस्मृति को क्यों जलाया?

25 दिसंबर 1927 को पहले के कोलाबा और अब रायगढ़ जिले के महाड में डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया था.
बाबासाहेब आंबेडकर पर किताबों के संपादक और भंडारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट के पूर्व उपाध्यक्ष डॉक्टर हरी नरके ने 2018 में बीबीसी मराठी को बताया था, "बाबासाहेब ने 25 दिसंबर 1927 को महाड में मनुस्मृति को जलाया था. उनके मित्र और प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान गंगाधर नीलकंठ सहस्रबुद्धे ने मनुस्मृति को जलाने का प्रस्ताव रखा था. बाबासाहेब ने इसे मंजूरी दी थी."
डॉक्टर आंबेडकर ने अपनी किताब 'फिलॉसफी ऑफ हिंदूइज्म' में लिखा है, "मनु ने चातुर्वर्ण्य का समर्थन किया था. मनु ने सिखाया था कि चातुर्वर्ण्य का पावित्र्य रखना चाहिए. इसी से जाति व्यवस्था को ताकत मिली. हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि मनु ने जाति व्यवस्था की स्थापना की, लेकिन इसके बीज मनु ने ही बोए थे."
अपनी किताब 'हू वर द शूद्राज़' और 'अनाइलेशन ऑफ़ कास्ट' में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि वे मनुस्मृति का विरोध क्यों करते हैं.
महिलाओं और दलितों को सामान्य जीवन जीने के अधिकार से वंचित रखना और ब्राह्मणवादी वर्चस्व की भूमिका ने समाज में अनेक जातियों का निर्माण किया. उन्होंने इन जातियों की तुलना एक बहुमंजिला इमारत से की जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल तक जाने के लिए सीढ़ियां नहीं हैं.
डॉक्टर आंबेडकर ने कहा, "चातुर्वण्य की रचना करके मनु ने श्रम विभाजन नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन किया."
विलियम जोन्स ने मनुस्मृति का अंग्रेजी में अनुवाद किया, इससे यह जानकारी अन्य लोगों तक पहुंची.
पंजाब यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्राध्यापक राजीव लोचन ने बीबीसी को बताया, "मनुस्मृति को चुनौती देने वाले पहले व्यक्ति महात्मा जोतिबा फुले थे. कृषि श्रमिकों, छोटे किसानों और समाज के दलितों की दुर्दशा को देखते हुए उन्होंने सेठजी और भटजी की आलोचना की. उन्होंने मनुस्मृति की भी आलोचना की."
मनु की प्रतिमा किसने और कब स्थापित करवाई थी?

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इमेज कैप्शन, राजस्थान में उच्च न्यायालय के परिसर में मनु की प्रतिमा
जयपुर में उच्च न्यायालय भवन बनने से पहले, राजस्थान उच्च न्यायालय का भवन केवल जोधपुर में ही था. राजस्थान के क्षेत्रफल को देखते हुए, इस राज्य में एक और बेंच की मांग की जा रही थी.
राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेट ने बताया कि उस समय जयपुर में भी एक नई अदालत भवन बनाने का निर्णय लिया गया था. राजस्थान के दलित आंदोलन कार्यकर्ता पीएल मीठरोठ कहते हैं, "जयपुर उच्च न्यायालय परिसर में मनु की प्रतिमा 1989 में स्थापित की गई. इस प्रतिमा की स्थापना के समय भी राजस्थान में हंगामा हुआ था. उच्च न्यायालय के वकीलों ने सौंदर्यीकरण के लिए तत्कालीन बार एसोसिएशन के अध्यक्ष से अनुमति मांगी थी. यह प्रतिमा सौंदर्यीकरण के नाम पर स्थापित की गई थी. उस समय वकीलों में उच्च जातियों का अनुपात अधिक था. इस प्रतिमा को यह कहते हुए स्थापित किया गया कि मनु ने सबसे पहले कानून लिखा था."
मीठरोठ यह भी बताते हैं, "1989 में जोधपुर में उच्च न्यायालय की एक बैठक हुई थी. उसमें आदेश दिया गया था कि इस प्रतिमा को 48 घंटे के भीतर हटा दिया जाए. लेकिन प्रतिमा अभी भी वहीं खड़ी है. बाबा आढाव, कांशीराम जैसे कई लोगों ने इसका विरोध भी किया है."
मनु और मनुस्मृति के समर्थन में कौन?
दक्षिणपंथी कार्यकर्ता संभाजी भिडे ने कहा कि मनु संत तुकाराम और ज्ञानेश्वर से भी श्रेष्ठ थे. अपने भाषण में भिडे ने कहा था कि मनु ने यह पुस्तक जगत के कल्याण के लिए लिखी थी.
मनु एक महान न्यायविद थे. और इसीलिए उनकी प्रतिमा राजस्थान उच्च न्यायालय के बाहर स्थापित की गई ऐसा अक्सर बताया जाता है.
सनातन संस्था भी मनुस्मृति का समर्थन करती है. 'मनुस्मृति जलानी चाहिए या उसका अध्ययन करना चाहिए', इस विषय पर एक ग्रंथ भी सनातन संस्था ने तैयार किया है. संस्था का दावा है कि मनुस्मृति के मार्गदर्शन के अनुसार राज्यव्यवस्था अस्तित्व में थी.
सनातन संस्था यह भी कहती है कि जर्मन दार्शनिक नीत्शे पर मनुस्मृति का विलक्षण प्रभाव था. संस्था का यह भी कहना है कि मनुस्मृति में जातिवाद का उल्लेख नहीं है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.