सऊदी अरब और यूएई में तनातनी, दोनों देशों में टकराव कितना गंभीर है?
सऊदी अरब और यूएई की जियोपॉलिटिकल महत्वाकांक्षा खुलकर सामने आने लगी है. गल्फ़ में दोनों देशों का दबदबा आपस में टकराता दिख रहा है. यह टकराव केवल यमन तक ही सीमित नहीं है.
सऊदी अरब और यूएई में तनातनी, दोनों देशों में टकराव कितना गंभीर है?

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इमेज कैप्शन, यूएई द्वारा प्रशिक्षित जायंट्स ब्रिगेड के सैनिकों के वाहन और लड़ाके 19 जनवरी 2022 को यमन के शबवा प्रांत के बैहान ज़िले के हारिब चौराहे पर गश्त करते हुए
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- Author, प्रेरणा
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
- 2 घंटे पहले
खाड़ी के दो सबसे शक्तिशाली देश - सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के बीच इस महीने की शुरुआत से ही तनाव लगातार बढ़ता जा रहा था.
मंगलवार शाम संयुक्त अरब अमीरात ने एक घोषणा की है, जिसके बाद से कयास लगाए जाने लगे हैं कि यह तनाव शायद थम जाए. इसके बावजूद दोनों देशों की जियोपॉलिटिकल महत्वाकांक्षा में टकराव खुलकर सामने आए.
यूएई के रक्षा मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा है कि वह यमन से अपनी बची सैन्य मौजूदगी भी ख़त्म कर देगा.
यूएई के रक्षा मंत्रालय ने अपने बयान में कहा, ''हम 2015 से अरब गठबंधन का हिस्सा बने हुए हैं और यमन में वैध सरकार का समर्थन करते रहे हैं. यूएई की सेना ने साल 2019 में यूं तो यमन में अपने मुख्य सैन्य अभियानों को पूरा कर लिया था और वापस लौट आई थी. वहीं कुछ सैनिकों को चरमपंथी ताक़तों पर लगाम रखने के लिए वहीं छोड़ दिया गया था. लेकिन हाल के घटनाक्रमों को देखते हुए रक्षा मंत्रालय बाक़ी बचे सैनिकों को भी वापस बुलाने की मांग कर रहा है. ''
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यूएई के इस बयान से पहले सऊदी अरब ने यमन की प्रेसिडेंशियल लीडरशिप काउंसिल के हवाले से कहा था कि यूएई चौबीस घंटे के भीतर यमन से अपनी सभी सेनाओं को वापस बुलाए और वहां के किसी भी गुट को सैन्य और आर्थिक सहयोग देना बंद कर दे.
जिसके बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में यूएई ने इन आरोपों की कड़ी निंदा की थी. यूएई का कहना था कि उसने यमन के किसी भी गुट को कभी भी सऊदी अरब के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई के लिए नहीं उकसाया.
बयान में कहा गया, ''यूएई सऊदी अरब की सुरक्षा और स्थिरता के प्रति प्रतिबद्ध है और देश की संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा का पूरा सम्मान करता है. लेकिन मकुल्ला के बंदरगाह पर हथियारों की कोई खेप नहीं उतारी जा रही थी. जो वाहन वहां उतारे गए वह किसी यमनी गुट के लिए नहीं बल्कि यमन में काम कर रही यूएई सेना के इस्तेमाल के लिए थी. ''
''इसके बारे में सऊदी अरब के साथ उच्च स्तर पर बातचीत हो चुकी थी, इसके बावजूद उन्होंने हमला किया, जो कि बहुत चौंकाने वाला था. दोनों देशों के पुराने और मज़बूत रिश्ते हैं. हमारा मक़सद हमेशा से यमन में वैध सरकार की मदद करना और आतंकवाद से लड़ना था. इस मामले को ज़िम्मेदारी से सुलझाने की ज़रूरत है ताकि क्षेत्र में शांति बनी रहे और यमन का संकट जल्द ख़त्म हो.''
हालिया तनाव की शुरुआत

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इमेज कैप्शन, यमन के बंदरगाह शहर मुकल्ला पर सऊदी अरब का हवाई हमला. तस्वीर बीते मंगलवार की है.
बीते मंगलवार सऊदी अरब ने यमन के बंदरगाह शहर मुकल्ला पर हवाई हमला किया. सऊदी अरब ने कहा कि ये हमले इसलिए किए गए क्योंकि यूएई की मदद से इस बंदरगाह पर 'सदर्न ट्रांज़िशनल काउंसिल' (एसटीसी) के लिए हथियारों की खेप पहुंचाई जा रही थी.
'सदर्न ट्रांज़िशनल काउंसिल' को यूएई समर्थित समूह माना जाता है और यह समूह दक्षिणी यमन को एक अलग देश बनाने की मांग करता है.
इस समूह ने दिसंबर के शुरुआती हफ़्तों में यमन के दक्षिण-पूर्वी इलाक़े के महत्वपूर्ण शहरों जैसे हद्रमौत, अल-मह्रा और तेल भंडारों पर क़ब्ज़ा कर लिया था.
सऊदी विदेश मंत्रालय का दावा है कि एसटीसी ने यह संयुक्त अरब अमीरात के इशारे और दबाव में किया. बयान में कहा गया है कि ये इलाक़े रणनीतिक रूप से अहम हैं और यहां अस्थिरता पैदा होना न सिर्फ़ सऊदी अरब की सुरक्षा, बल्कि यमन की एकता और पूरे क्षेत्र की स्थिरता के लिए भी गंभीर ख़तरा है.
लेकिन यह एसटीसी है क्या और सऊदी अरब इसे अपनी सुरक्षा के लिए ख़तरा क्यों मानता है?
विवाद की जड़

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इमेज कैप्शन, एसटीसी के जवान.
इस सवाल के जवाब के लिए साल 2014 से शुरुआत करनी होगी क्योंकि यमन की मौजूदा हालत 2014 में शुरू हुए गृहयुद्ध का ही नतीजा है.
साल 2014 में ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों ने राजधानी सना पर क़ब्ज़ा कर लिया और राष्ट्रपति को देश छोड़कर भागना पड़ा.
तत्कालीन राष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी ने जीसीसी यानी खाड़ी सहयोग परिषद से सैन्य मदद की अपील की.
जिसके बाद सऊदी अरब और यूएई ने मिलकर यमन में सैन्य कार्रवाइयां कीं लेकिन कुछ ठोस हासिल नहीं हुआ.
लड़ाई के दौरान ही यूएई ने महसूस किया कि हूतियों को पूरी तरह हराना आसान नहीं है, इसलिए उसने अपनी रणनीति बदली और दक्षिण यमन के स्थानीय लड़ाकों और पुराने अलगाववादी नेटवर्क को संगठित करना शुरू किया, जिससे 2017 में सदर्न ट्रांज़िशनल काउंसिल (एसटीसी) का जन्म हुआ.
इस संगठन की मांग थी कि दक्षिण यमन को एक अलग देश बनाया जाए.
एक्सपर्ट्स बताते हैं कि यूएई ने एसटीसी को हथियार, प्रशिक्षण और राजनीतिक समर्थन दिया क्योंकि इससे उसे दक्षिणी यमन के बंदरगाहों, समुद्री रास्तों और तेल-गैस क्षेत्रों पर प्रभाव बढ़ाने का मौका मिला, वहीं सऊदी अरब का मक़सद यमन को एकजुट रखना है, ताकि उसकी सीमा पर एक कमज़ोर लेकिन मित्र सरकार बनी रहे.

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इमेज कैप्शन, यमन - साल 2019 की तस्वीर
कुछ दिनों पूर्व बीबीसी मॉनिटरिंग के ओम्निया अल नगर ने यमन को लेकर संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के विरोधाभासी रुख़ को रेखांकित किया था.
वह अपने लेख में लिखते हैं, '' 2015 में हूतियों के ख़िलाफ़ संयुक्त अभियान चलाने के बाद... यमन के दक्षिणी तट पर अपना क़दम जमाने की चाहत, लाल सागर तक पहुँच और बंदरगाह के व्यापारिक रास्तों को सुरक्षित करने के लिए, संयुक्त अरब अमीरात ने एसटीसी की सेनाओं का समर्थन किया.''
इन्हीं सारी चीज़ों ने दोनों देशों के बीच मतभेदों का बीज बोया क्योंकि सऊदी अरब यमन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सरकार और सेना का समर्थन करता है.
वहीं हाल के वर्षों में संयुक्त अरब अमीरात ने यमन में अपनी सैन्य मौजूदगी को बढ़ाया है.
इसमें सऊदी समर्थित यमनी सरकार के साथ सेनाओं की ट्रेनिंग, इंटेलिजेंस शेयरिंग को बढ़ावा देना और ख़तरों से निपटने के लिए रक्षा समझौता वग़ैरह शामिल है.
इंडियन काउंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफ़ेयर्स में सीनियर फ़ेलो फ़ज्ज़ुर रहमान कहते हैं कि जब से पूरी दुनिया का ध्यान ग़ज़ा पर शिफ़्ट हुआ है, तब से एसटीसी यमन में मज़बूत हुई है.
वह कहते हैं, ''इसराइल-ग़ज़ा जंग के विराम में क़तर की भूमिका, सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था का विस्तार...यह ऐसी चीज़ें हैं जो यूएई को जीसीसी में अपनी पोज़िशन को लेकर असुरक्षित महसूस करा रही है. इसलिए एसटीसी को समर्थन देकर, वह केवल अपने राजनीतिक प्रभाव को बरक़रार रखना चाहती है. इसे बहुत गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है.''
थमेगा तनाव?

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फ़ज्ज़ुर रहमान का मानना है कि इस तनाव को ख़त्म होना ही था. वह कहते हैं, '' वजह यह है कि यमन में कुछ ऐसा है नहीं. पांच, छह, सात साल के बाद भी सऊदी को नहीं कुछ मिला, यमन को भी कुछ नहीं मिला, चीज़ें वैसी की वैसी ही बनी हुई हैं, तो मुझे लगता है कि दोनों देशों की यह अपनी पॉलिटिकल पोजिशनिंग है जो असल में गल्फ़ पॉलिटिक्स को लीड करना चाहते हैं. यह संदेश देना भी कि जीसीसी में हम नंबर दो नहीं हैं.''
जीसीसी यानी गल्फ़ कोऑपरेशन काउंसिल में छह देश शामिल हैं- सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), ओमान, बहरीन, क़तर और कुवैत. इसकी स्थापना 1981 हुई थी.
इसका उद्देश्य सदस्य देशों के बीच राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति में आपसी तालमेल और सहयोग बढ़ाना है.
मतभेद केवल यमन तक सीमित नहीं
हालांकि जीसीसी के इन दोनों ही सदस्य देशों के बीच का मतभेद केवल यमन तक सीमित नहीं है.
कई दूसरे मसले भी हैं, जहां दोनों देशों में टकराव नज़र आ रहा है.
जैसे ओपेक में तेल उत्पादन और निर्यात से जुड़े फ़ैसलों को लेकर दोनों देश कई बार टकरा चुके हैं.
सऊदी अरब आम तौर पर तेल बाज़ार में स्थिरता बनाए रखने और क़ीमतों को संतुलित रखने पर ज़ोर देता रहा है जबकि यूएई अधिक उत्पादन क्षमता के आधार पर अपने हिस्से में बढ़ोतरी की मांग करता रहा है.
इसके अलावा, सूडान, यमन और अन्य क्षेत्रीय विवादों में भी दोनों देशों की प्राथमिकताएं और रुख़ अलग-अलग हैं.
अफ़्रीका में दोनों देश क्षेत्रीय प्रभाव और रणनीतिक मौजूदगी बढ़ाने की होड़ में हैं, ख़ासकर लाल सागर के किनारे बसे देशों और अहम समुद्री रास्तों को लेकर.
तो ऐसे समय में जब सऊदी अरब खुद को क्षेत्रीय कूटनीति का केंद्र और वैश्विक निवेश का हब बनाने पर ध्यान दे रहा है, वहीं यूएई ने अपनी सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक ताक़त का इस्तेमाल कर अफ़्रीका और लाल सागर क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने की रणनीति अपनाई है.
कई मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इन अलग-अलग रणनीतियों और हितों की वजह से ओपेक के भीतर भी तेल उत्पादन से जुड़े फ़ैसलों पर सऊदी अरब और यूएई के बीच तनाव खुलकर सामने आया है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित