बांग्लादेश में जमात-ए इस्लामी और एनसीपी के साथ आने को भारत के हक़ में क्यों नहीं देखा जा रहा है?
SOURCE:BBC Hindi
बांग्लादेश में फ़रवरी में चुनाव हैं. चुनावी मैदान में जो पार्टियां और गठबंधन हैं, उन्हें भारत के लिहाज से ठीक नहीं माना जा रहा है. इस बीच एनसीपी और जमात-इस्लामी के साथ आने को भारत के लिए झटके के रूप में देखा जा रहा है.
बांग्लादेश में जमात-ए इस्लामी और एनसीपी के साथ आने को भारत के हक़ में क्यों नहीं देखा जा रहा है?
इमेज स्रोत, @BJI_Official
इमेज कैप्शन, बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख शफ़ीक़ुर रहमान एक रैली को संबोधित करते हुए
एक घंटा पहले
बांग्लादेश से शेख़ हसीना को सत्ता से हटाने के लिए पिछले साल जुलाई में शुरू हुए आंदोलन का नेतृत्व वही लोग कर रहे थे, जिन्होंने इस साल फ़रवरी में नेशनल सिटिजन पार्टी (एनसीपी) बनाई.
एनसीपी बांग्लादेश में वैकल्पिक राजनीति की बात कर रही थी लेकिन इनके आलोचक इन्हें जमात-ए इस्लामी की बी टीम भी कह रहे थे.
एनसीपी के नेता भारत सरकार की नीतियों की खुलकर आलोचना कर रहे हैं. पिछले 11 महीने में एनसीपी की पहचान भारत के ख़िलाफ़ मुखर होकर बोलने वाली पार्टी के रूप में भी बनी.
अब जब चुनाव में महज दो महीने बचे हैं, तब एनसीपी ने बांग्लादेश जमात-ए इस्लामी के साथ चुनाव लड़ने की घोषणा की है.
ऐसे में उस दलील को बल मिला है कि एनसीपी जमात की बी टीम है.
जमात-ए इस्लामी बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध के ख़िलाफ़ था और एनसीपी के बारे में यह जाने लगा है कि वह उस संगठन के साथ चुनाव में जा रही है, जिसने बांग्लादेश की आज़ादी का विरोध किया था.
इसी महीने बांग्लादेश की नेशनल सिटिजन पार्टी (एनसीपी) के सदर्न चीफ़ ऑर्गेनाइजर हसनत अब्दुल्लाह ने चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर बांग्लादेश को अस्थिर किया गया तो भारत के पूर्वोत्तर राज्यों सेवन सिस्टर्स को अलग-थलग कर दिया जाएगा.
पूर्वोत्तर भारत के सात राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड और त्रिपुरा को एक साथ सेवन सिस्टर्स कहा जाता है.
हसनत अब्दुल्ला ने सेवन सिस्टर्स पर धमकी देने के दो दिन बाद ढाका से भारत के उच्चायुक्त को निकालने की मांग की थी.
उन्होंने कहा था, ''भारत के उच्चायुक्त को देश से बाहर निकाल देना चाहिए था क्योंकि वह शेख़ हसीना को शरण दे रहा है.''
बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
हालांकि कुछ लोग इसे जमात-ए-इस्लामी की कामयाबी मान रहे हैं. कट्टरपंथी जमात से एक ऐसी पार्टी ने गठबंधन किया है, जिसके छात्र आंदोलन से जुड़े नेताओं ने कई बार बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्ष और उदार छवि बनाए रखने की बात की थी.
इमेज स्रोत, Getty Images
इमेज कैप्शन, बांग्लादेश में छात्र आंदोलन के दौरान एक मंच से भाषण देते नाहिद इस्लाम
नेशनल सिटिजन पार्टी पर क्यों उठ रहे सवाल
जमात और एनसीपी के गठबंधन पर भारत में भी बात हो रही है. कहा जा रहा है कि अगर फ़रवरी के चुनाव में इस गठबंधन को जीत मिलती है तो इसका असर भारत पर क्या होगा.
भारत के सामरिक मामलों के विश्लेषक ब्रह्मा चेलानी ने एक्स पर लिखा, ''बांग्लादेश में शेख़ हसीना सरकार को हिंसक तरीक़े से सत्ता से हटाए जाने के दौरान इस्लामी ताक़तों ख़ासकर जमात-ए-इस्लामी की छात्र शाखा ने सड़क पर हुए प्रदर्शनों को काफ़ी हद तक ताक़त दी. अब उन्हीं प्रदर्शनों की अगुवाई करने वाले नेताओं की नेशनल सिटिजन पार्टी (एनसीपी) ने औपचारिक रूप से जमात-ए-इस्लामी के साथ गठबंधन कर लिया है.''
चेलानी ने लिखा है, ''दूसरे बड़े गठबंधन का नेतृत्व करने वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने भी इस्लामी ताक़तों के साथ गठबंधन किया है. बीएनपी का गठबंधन जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम से हुआ है.''
चेलानी कहते हैं, ''देश की सबसे बड़ी और धर्मनिरपेक्ष मानी जाने वाली अवामी लीग के प्रतिबंधित होने के बाद, फ़रवरी का चुनाव अब दो इस्लामी ताक़तों की ओर झुकाव रखने वाले गठबंधनों के बीच मुक़ाबला बन गया है. ये बांग्लादेश की स्थापना के मूल सिद्धांतों से एक अहम और प्रतीकात्मक विचलन को दिखाता है.''
वहीं द हिंदू के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर लिखा, '' एनसीपी पिछले साल हुए छात्र आंदोलनों की विरासत का दावा करती है. पार्टी के गठन के समय उसके नेताओं ने ख़ुद को बांग्लादेश की पारंपरिक पार्टियों के मुक़ाबले एक मध्यमार्गी और सुधारवादी विकल्प के रूप में पेश किया था.''
''लेकिन अब वही पार्टी जमात-ए-इस्लामी के साथ औपचारिक गठबंधन में शामिल हो गई है. यानी उन्हीं ताक़तों के साथ, जिन्होंने बांग्लादेश के मुक्ति युद्ध का विरोध किया था और 1971 के जनसंहार के दौरान पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर काम किया था.''
जमात से गठबंधन के फ़ैसले पर एनसीपी में भी मतभेद गहराते दिख रहे हैं. पार्टी के दो प्रमुख नेताओं समेत कई महिला नेताओं ने इस्तीफ़ा दे दिया है.
इमेज स्रोत, @ChiefAdviserGoB
इमेज कैप्शन, बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी के प्रमुख शफ़ीक़ुर रहमान के साथ मोहम्मद यूनुस
हसन ने बीबीसी बांग्ला से कहा कि बांग्लादेश में भारत विरोधी माहौल का मज़बूत होना एनसीपी-जमात की एकता के कारणों में से एक है.
उनके अनुसार एनसीपी ने जिन लोगों के साथ समझौता किया है, जिनमें जमात भी शामिल है, उनका लक्ष्य भारत विरोधी भावना को बढ़ावा देकर और जन आंदोलन खड़ा करके चुनावी लाभ हासिल करना होगा.
उन्होंने कहा, "समय ही बताएगा कि यह सफल होगा या नहीं. नाहिद हसन (एनसीपी के प्रमुख समन्वयक) जनआंदोलन के चेहरे के रूप में एक अलग भूमिका निभाते रहे हैं. लेकिन अब एक पार्टी के नेता के तौर पर उनका भविष्य चमकेगा या अंधकारमय हो जाएगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत विरोधी गठबंधन के रूप में जमात को आगे बढ़ाने के उनके प्रयास कितने सफल होते हैं."
हालांकि ढाका विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर शमीम रजा का मानना है कि एनसीपी को गठबंधन में शामिल करने से जमात को कुछ हद तक फ़ायदा हुआ है क्योंकि एनसीपी की छवि जमात खेमे के बाहर के वोटों को आकर्षित करने में मदद करेगी.
उन्होंने बीबीसी बांग्ला से कहा, "एक बार फिर, जमात के पास उन मुद्दों पर एनसीपी के क़रीब आने का मौक़ा है, जिन पर एनसीपी नेताओं की सार्वजनिक और सोशल मीडिया पर मौजूदगी के कारण आलोचना होती है. हालांकि, जमात के साथ गठबंधन के कारण एनसीपी को कुछ सवालों का सामना ज़रूर करना पड़ेगा.''
इमेज स्रोत, Monira Sharmin/Facebook
इमेज कैप्शन, एनसीपी की ओर से नगांव-5 निर्वाचन क्षेत्र से नामित मोनिरा शर्मिन ने घोषणा की है कि वह चुनाव से हट रही हैं. हालांकि उन्होंने पार्टी से इस्तीफ़ा नहीं दिया है.
जमात से गठबंधन पर एनसीपी में बग़ावत
एनसीपी की केंद्रीय समिति के 30 नेताओं ने शनिवार को पार्टी संयोजक नाहिद इस्लाम को पत्र लिखकर जमात के साथ किसी भी चुनावी गठबंधन का विरोध किया था.
बीबीसी बांग्ला के मुताबिक़ शेख़ हसीना विरोधी आंदोलन की अगुवाई करने वाले भेदभाव-विरोधी छात्र आंदोलन के एक को-ऑर्डिनेटर अब्दुल क़ादिर ने फ़ेसबुक पोस्ट में नाहिद इस्लाम पर 'लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़' करने का आरोप लगाया.
उन्होंने लिखा, ''युवा राजनीति की क़ब्र खोदी जा रही है. एनसीपी आख़िरकार जमात के साथ सीधा गठबंधन कर रही है. देश भर के लोगों और कार्यकर्ताओं की उम्मीदों और आकांक्षाओं को कुचलकर कुछ नेताओं के हित साधने के लिए उन्होंने यह आत्मघाती फ़ैसला किया है."
बीबीसी बांग्ला के मुताबिक़ जमात के साथ चुनावी समझौते की घोषणा के बाद सोशल मीडिया पर कई लोग शिकायत कर रहे हैं कि एनसीपी का जो धड़ा जमात के साथ समझौते पर पहुंचा है, वह चुनाव से पहले जमात की ओर झुका रहा है क्योंकि वह 'जमात समर्थक' है.
जमात-ए-इस्लामी से चुनावी गठबंधन के बारे में एक महिला नेता ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा,"जमात-ए-इस्लामी एक भरोसेमंद सहयोगी नहीं है. मेरा मानना है कि एनसीपी को इसके राजनीतिक रुख़ या विचारधारा के साथ किसी भी तरह का सहयोग या समझौता करने पर भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी."
वहीं कुछ लोगों का कहना है कि बातचीत या सौदेबाज़ी में जमात से ज़्यादा फ़ायदे का भरोसा मिलने की वजह से ही एनसीपी के शीर्ष नेतृत्व ने उनके साथ चुनावी गठबंधन का फैसला किया है.
बांग्लादेश के प्रमुख़ अख़बार 'द डेली स्टार' ने विश्लेषक और लेखक मोहिउद्दीन अहमद के हवाले से लिखा है कि एनसीपी 'राज्य सत्ता-केंद्रित राजनीति' करती है और जहां उसे हालात अपने अनुकूल दिखते हैं वहां गठबंधन कर लेती है.
हालांकि अहमद ने यह भी कहा कि ऐसे गठबंधन की चुनाव के बाद ज़्यादा समय तक टिकने की संभावना नहीं होती.
एक और विश्लेषक अल्ताफ़ परवेज ने 'डेली स्टार' से बात करते हुए कहा, ''शुरुआत से ही एनसीपी के भीतर दक्षिणपंथी झुकाव मौजूद रहा है. दूसरी बात ये कि पिछले 17 महीनों में जनता के एक बड़े हिस्से ने अंतरिम सरकार की विफलताओं के लिए आंशिक रूप से एनसीपी को ज़िम्मेदार माना है. इसकी वजह यह है कि ख़ुद सरकार के प्रमुख ने कहा था कि उन्हें छात्रों ने नियुक्त किया है. साथ ही यह धारणा भी व्यापक रही है कि कई सलाहकारों की नियुक्ति या चयन छात्रों ने ही किया है.''
इमेज स्रोत, Getty Images
इमेज कैप्शन, नवंबर 2025 में नेशनल रेफ़रेंडम और जुलाई चार्टर के समर्थन में प्रदर्शन करते जमात-ए-इस्लामी के कार्यकर्ता
जमात-ए-इस्लामी को कितना फ़ायदा
अल्ताफ़ परवेज ने इस गठबंधन ने इसे जमात के लिए बड़ी सफलता बताते हुए कहा, ''दक्षिण एशिया और दुनिया भर में जमात की पहचान एक शरिया-आधारित पार्टी के रूप में रही है. जमात-ए-इस्लामी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, तीनों देशों में मौजूद है. इन तीन देशों में अपने 84 साल के इतिहास में यह पहला मौक़ा है, जब जमात को इतनी बड़ी नैतिक सफलता मिली है. उसने एक जन-विद्रोह का नेतृत्व करने वाली पूरी ताक़त को अपने दायरे में ले लिया है.''
वो कहते हैं, "इसके नतीजे में अब वह दुनिया को यह दिखा सकती है कि शरिया-आधारित पार्टी होने के बावजूद उसकी अपील उदार मध्य वर्ग तक फैल चुकी है."
उन्होंने कहा, "दूसरी बात यह है कि 12 फ़रवरी के चुनाव के बाद भी बांग्लादेश में राजनीति चलती रहेगी. भले ही जमात चुनाव हार जाए लेकिन एनसीपी का उसके साथ होना जमात के नेतृत्व में विपक्षी राजनीति खड़ी करना आसान बना देगा. व्यावहारिक रूप से इसने किसी और विपक्षी ताक़त के लिए जगह ख़त्म कर दी है. राजनीति में नैतिक और सांस्कृतिक पहलू बहुत मायने रखते हैं और एनसीपी के युवा नेता मध्यमवर्गीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं."
हालांकि विश्लेषक मोहिउद्दीन अहमद 'डेली स्टार' से कहा कि एनसीपी के जमात खेमे में जाने को चुनाव से पहले की एक स्वाभाविक राजनीतिक प्रक्रिया मानते हैं. उनका कहना है कि बांग्लादेश के इतिहास में हर चुनाव से पहले ऐसे गठबंधन बनते रहे हैं.
उन्होंने कहा, "मैं एनसीपी के जमात के साथ जाने को कोई असाधारण घटना नहीं मानता. सत्ता की राजनीति इसी तरह काम करती है. एनसीपी हाल ही में बनी पार्टी है. इसके किसी भी नेता ने 1971 को देखा नहीं है, इसलिए उससे उनका कोई भावनात्मक जुड़ाव नहीं है. वे राज्य सत्ता-केंद्रित राजनीति करते हैं और जहां उन्हें अनुकूल माहौल दिखता है, वहीं चले जाते हैं."
उन्होंने कहा, "हम जानते हैं कि उन्होंने (एनसीपी) बीएनपी के साथ भी बातचीत की थी लेकिन नतीजों से वे संतुष्ट नहीं थे. हो सकता है कि उन्हें जमात के साथ सौदेबाज़ी की स्थिति बेहतर लगी हो, इसलिए उन्होंने यही रास्ता चुना.''
मोहिउद्दीन अहमद ने यह भी कहा कि जिस तरह 1971 में आज़ादी के सामूहिक संघर्ष की उपलब्धियों को अपने नाम करने की प्रवृत्ति अवामी लीग में रही, उसी तरह 2024 के जन-आंदोलन की उपलब्धियों को अपने खाते में डालने की प्रवृत्ति एनसीपी में भी दिखाई देती है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.